Wednesday, December 30, 2009

ठूँठ में बदल गए








कुछ बंद दरवाजे हैं
कुछ रोज़ सुनी जाने वाली आवाज़ें
दीवारें हैं,
और बहुत कुछ है बिखरा हुआ
जिसे रोज़ समेटती हूँ
बस यही तो करती हूँ
अपनी ज़िन्दगियों को “हमारी” बनाने की कोशिश में
जितनी बार मुँह खोलती
बाँहें फैलाती
उतनी बार नासमझ करार दी जाती
उलटबाँसियों से दबा दिया जाता
उछलता कूदता मेरा मन
अनर्थों में जीता हमारा आज
अपने अपने भविष्य की ओर
अकेला ही बढ़ता जा रहा है
मेरे आँसू मेरा दर्द मेरा प्रेम
सिर्फ मेरे बनकर मुझमें ही विलीन होने लगे
जहाँ तक पहुँचकर इनको फलना था
वहाँ पहुँचकर ठूँठ में बदल गए...

Sunday, December 27, 2009

मेरी उम्मीद








दिन उगता है तो उम्मीद करती हूँ

दोपहर होने पर उम्मीद करती हूँ

दिन ढलने पर भी उम्मीद करती हूँ

रात को उसी उम्मीद के साथ

अपने बिस्तर पर

कम्बल में लिपटकर

सो जाते हैं

मैं और मेरी उम्मीद !

Thursday, September 10, 2009

हाथी


वे कुछ कहना चाहते हैं

कहने के लिए

बहाना चुन लिया

हाथी का

नाक, कान, सूँड़, पूँछ

पर नाम न कह सके

हाथी का

सब कह कर पहेली गढ़ दी

उत्तर में मुझ से भी

नाम सुनना चाहा

हाथी का!

Thursday, September 3, 2009

स्वार्थी हूँ


स्वार्थी हूँ
यह जानती हूँ!
इसलिए
कि तुम गलत न हो सको
मुझे एक और बार
होना पड़ेगा स्वार्थी.
इसलिए
कि तुम कह सको
तुमने मुझे जाना था सही
मुझे एक और बार
होना पड़ेगा स्वार्थी.
इसलिए
कि फिर तुम्हारी जुबाँ
न गुनहगार हो
न हो सिर लज्जित...
मुझे होना पड़ेगा स्वार्थी!

Sunday, August 16, 2009

हम



हम

नींद तो चाहते हैं

लेकिन थकना नहीं

साथ तो चाहते हैं

हाथ देना नहीं

कैसा समय है?

जब हम

सफल होना चाहते हैं

सार्थक नहीं !

Monday, August 10, 2009

कविता रचना कठिन काम है


भावों के उछाल को

दिमाग के सवाल को

बाँध पाना, संयत बनाना

बड़ा कठिन काम है दोस्त,

तुम कितनी सरलता से कहते हो

आज कल कुछ लिखो विखो

और कुछ नहीं तो

कविता ही कर डालो,

शायद तुम नहीं जानते दोस्त

यूँ कागज़ कलम उठाकर

बुन देने से मकड़जाल

कविता नहीं रची जाती,

कविता उगती है

भावों के स्पंदन से

विचारों की दरारों में,

तोड़ती है मन की कुंठाएँ

खोलती है खिड़कियाँ

छनकर पहुँचती है जहाँ से

धूप और हवा

कविता रचती है इतिहास

बुनती है भविष्य

उठाती है प्रश्न

जगाती है वर्तमान

ताकि हम सोने न पाएँ

ताकि हम रोते न रह जाएँ!

Thursday, August 6, 2009

मुझे याद है


मुझे याद है

तुमने कहा था

मेरे प्रश्न के उत्तर में :-

“तुम मेरे जीवन के

प्रत्येक विचार में

प्रत्येक खाली स्थान में

अपनी उपस्थिति दर्ज़ करवा चुकी हो।

मैं पानी का बिल जमा करवाने

चाहे कितनी भी लम्बी लाइन में खड़ा रहूँ

मुझे लगता है

वहाँ केवल हम-तुम हैं

एक-दूसरे से , एक-दूसरे को साझा करते,

मुझे लगता है लोगों की जाने

किस बात की जल्दबाजी है कि

वे परेशान हैं, हैरान हैं

किसी भी तरह लाइन में अपना स्थान

खोना नहीं चाहते

या तो पहुँच जाना चाहते हैं

सबसे आगे।

जबकि मैं खुश होता हूँ

सबसे पीछे खड़ा रहकर भी।।“

Sunday, August 2, 2009

पिता की रिटायरमेंट पर












ठहर जाने के लिए आपकी ज़िन्दगी में,

मैं, पड़ाव आ ही गया.

गुज़रा वक्त नहीं जो आ न सकूँ पर

मैं, बदलाव आ ही गया.

गवाह हूँ मैं आपकी मेहनत का

संघर्ष का, पर भरे कंधों में

मैं, झुकाव आ ही गया.

अभी नहीं हुए हैं आप ज़िम्मेदारियों से निवृत पर

देखा न,

मैं, सुझाव आ ही गया.

हम सभी देंगे आपका साथ हर पग पर

अब इस डाली में, कुछ मुड़ाव आ ही गया.

____________________ गंगा

Friday, July 24, 2009

एक गंभीर सवाल



मैंने भारत के भविष्य को

जलती सड़कों पर नंगे पैरों चलते देखा है.

मैंने भारत के भविष्य को

सड़कों पर, चौराहों पर

भीख मांगते देखा है.

मैंने भारत के भविष्य को

फटे बोरे में कबाड़ बीनते देखा है.

मैंने भारत के भविष्य को

भूख से बिलखते तड़पते देखा है.

मैंने देखा है

एक गंभीर सवाल बनते

भारत के भविष्य को.

Friday, July 17, 2009

राखी सावंत : वरण की स्वतंत्रता : स्वतंत्रता का वरण


लोग देखते हैं

तुम्हारा चेहरा

तुम्हारा बदन

तुम्हारा काम

और अंदाजा लगा लेते हैं

बल्कि यक़ीनन जान लेते हैं

तुम्हारे व्यक्तित्व को,

तुम्हारी तेज चलती ज़बान

पुरूषों को

संस्कृति, सभ्यता, परम्परा जैसी चट्टानों पर

भीम के गदा की गूँज-सी सुनाई पड़ती है।

तुम्हारा थिरकता बदन

जिन्हें टीवी का चैनल बदलने नहीं देता

वह तुम्हारे घर बसाने के सपने को लेकर

मूँह और भौहें सिकोड़ते हैं,

तुम बार-बार कहती हो

अपने संघर्ष की कहानी

लेकिन तुम नहीं जानती

बाज़ार ने सच को स्टंट बना दिया है,

और उसका शिकार ये समाज

नहीं पहचान पाता उस औरत को

जिसने पुरूषों की नोचती निगाहों का जवाब

अपनी धारदार जुबान के रूप में

तैयार कर लिया है।

तुम्हारे संघर्ष में लोगों को

मसाला दिखता है,

तुम्हारे काम को

आइटम का तमगा बना

अपनी संस्कारी बुद्धिमत्ता पर

उछलते हैं,

तुमने सबको

अंगूठा दिखा दिया राखी।

Sunday, July 12, 2009

उनकी आँखें


बाँट लिया करती हैं,

उनकी आँखें.

चुपके से हौले से न जाने क्या

छोड़ दिया करती हैं

उनकी आँखें.

भाँप लिया करती है मेरा ग़म

मेरी उदासी मेरी बौखलाहट,

मन तक टटोल लिया करती है

उनकी आँखें.

उनकी आँखें

जिनमें ज़िंदगी है रंग है

सपने हैं जो संग है,

सच कहूँ

मेरा आईना है

उनकी आँखें.

Monday, July 6, 2009

बेटे जैसा बनाने के लिए








वह जुटती रहती है

दिनभर

बुनती है भविष्य

समेटती है वर्तमान

अपनी दोनों बेटियों को

बेटे जैसा बनाने के लिए.

Thursday, July 2, 2009

ये रातें करे बातें


ये रातें करे बातें

चले आओ

ये हवाएँ दे दुआएँ

चले आओ

ये इंतज़ार करे बेज़ार

चले आओ

ये मौसम करे हमदम

चले आओ!

Sunday, June 28, 2009

दान-पुण्य (लघुकथा)










"क्या है! जब भी किताब लेकर बैठती हूँ दरवाजे पर घंटी ज़रूर बजती है. खोलने भी कोई नहीं आएगा."
दरवाजा खोला तो सामने दस-बारह साल की एक छोटी लड़की फटे मैले फ्रॉक में खड़ी थी. शरीर और बालों पर गर्द इतनी जमी थी मानों सालों से पानी की एक बूँद ने भी इसे नहीं छूआ...
"क्या है?"
मैंने एक ही पल में झुंझलाते हुए बोल तो दिया लेकिन उसका चेहरा देखकर खुद की तमीज़ पर शर्मसार हो गई. मैं बुआ को आवाज़ लगा एक कोने पर खड़ी हो गई. बुआ आई और उसे देखते ही चिल्ला उठी,-
"क्या है री! तूने घंटी को छूआ कैसे, दूर हो......क्या चाहिए?"
"माँ जी भूख से बेहाल हो रही हूँ. मेरे छोटे भाई बहनों ने भी कुछ नहीं खाया, कुछ खाना-दाना दे दो माँई." बुआ ने आँखें दिखाकर कहा,-
"अच्छा! खाना..दाना.. तुम लोगों को मैं खूब जानती हूँ, दो पैसे कमाने में हड्डियाँ टूटती है. माँगने से काम चल जाए तो कमाए कौन. चल जा कुछ नहीं है, रोज़-रोज़ चले आते हैं."
और बुआ ने दरवाजा उसके मुँह पर दे मारा.
मैं भी सोचती हुई-सी कि वो लड़की सच कहती होगी या झूठ, अपनी कुर्सी पर जा ही रही थी कि दरवाजे पर घंटी फिर बजी. अबकी बार ज़ोर से आवाज़ आई,-
"शनिदान, जो करेगा शनि का दान उसका होगा महाकल्याण. जय शनिदान. आज अमावस का शनिवार है, बेटा कुछ दान दक्षिणा दो."
मैं मुड़ती कि इससे पहले बुआ थाली में बहुत से चावल, खूब सारा आँटा, जमे हुए देशी घी का एक लौंदा, नमक इत्यादि सीदा और ग्यारह रूपये कुर्ते पैजामे के साथ लेकर दरवाजे की ओर दौड़ पड़ीं. हाथ जोड़कर शनिदान को दान अर्पण किया और बोली,-
"हे शनि महाराज, बस अपनी कृपा बनाए रखना."
दरवाजा आराम से बंद करके बुआ रसोई घर में चली गई.

Tuesday, June 23, 2009

बचपन की उम्र

















मैं सुनाती हूँ अक्सर
अपनी आठ साल की भाँजी को
कितना अलग था
तुम्हारे बचपन से
हमारा बचपन।

तुम्हारे सारे खिलौने
मिल जाते हैं दुकानों पर
हम खुद बनाते थे खिलौने
कभी मिट्टी से
कभी टूटे फूटे डिब्बों से
घर का सारा कबाड़
माँ हमें दे देती
और हमें लगता
मिल गया दुनिया का सबसे कीमती खजाना।

मेरी भाँजी जानती है
कौन-कौन सी नई फिल्में
नए गाने,
नाच की नई-नई मुद्राएँ
आजकल चर्चा में है
हम जानते थे
वही लोकगीत
वही भजन
जिन्हें आँगन में खटिया पर बैठी
दादी दिनभर गुनगुनाती थी।

बड़ो से भी ज्यादा समझदारी
दुनियादारी की बातें जानती हैं
मेरी आठ साल की भाँजी
उसकी उम्र में हमें
दुनिया का अर्थ भी
समझ न आया होगा
वही नहीं
उसकी उम्र के तमाम बच्चे
वक्त से पहले बड़े हो गए।

किस रंग की फ्रॉक के साथ
कौन - सी क्लिप
कौन - सी चप्पल चलेगी
इसका ध्यान रखना उसके लिए ज़रूरी है
उसे आता भी है
जबकि हम पाँचों भाई-बहन
पहनते थे
एक ही थान के कपड़े से बनी
फ्रॉक, पैंट, बुर्शट
उसे देखकर लगता है
21वीं सदी में घट गई है
बचपन की उम्र!

Monday, June 22, 2009

अब भी मन करता है





















तुम्हारा हाथ थामकर चलने को

अब भी मन करता है

कनखियों से झांककर

तुम्हारी मुस्कान चुरा लेने को

अब भी मन करता है

मन करता है अब भी कि

एक छतरी में भीगने से बचने की

नाकाम कोशिश करते रहें

एक दूसरे से सटे हुए

किसी पेड़ के नीचे खड़े रहें

न जाने किन किन बातों पर

चर्चा करते थे साथ रहने को

उस बतरस में डूबने का

अब भी मन करता है

मन करता है अब भी

तुम्हारी लिखी प्रेम कविताएँ

बार बार पढ़ते रहने का।

Saturday, June 20, 2009

मेरे घर की रौशनी













तुम्हारा इंतज़ार था
तुम आ गई
मेरे घर की रौशनी,
तुम्हारी मासूम निगाहें
जब खुलती है
तो टिमटिमाने लगती है
आकाश-गंगा
इस छोटे से कमरे में,
तुम्हारे नन्हें लबों पर
अनजाने छिटकी हँसी
दिन और देह की थकान
चुरा लेती है
घर की रौशनी,
तुम्हारे नन्हें-नन्हें हाथों को
अपने हाथों पर रखकर
पूरा घर अपना बचपन जी लेता है,
छत पर बंधे तार से लटकते
तुम्हारे छोटे-छोटे कपड़े
मुहल्ले भर को ख़बर कर देते हैं,
तीज-त्यौहार मनाने
बहाने से तुम्हें खिलाने
चली आती हैं पड़ोसिने,
तुम्हारा इंतज़ार था
सभी को,
तुम आ गई
मेरे घर की रौशनी.

Tuesday, June 16, 2009

हम



हम

नींद तो चाहते हैं

लेकिन थकना नहीं

साथ तो चाहते हैं

हाथ देना नहीं

कैसा समय है?

जब हम

सफल होना चाहते हैं

सार्थक नहीं !

Sunday, June 14, 2009

मैं चुरा लेना चाहती हूँ


















ज्यों चुरा लेता है

गर्मी का मौसम

बादलों से थोड़ी बारिश

सर्दी का मौसम

गुनगुनी धूप की तपिश

मैं चुरा लेना चाहती हूँ

वक्त

तुमसे मिलने का…

Saturday, June 13, 2009

पर दिशाहीन कबतक?
















तुमने दिए पंख

कहा उड़ो…

दिखाया आकाश

जिसके असीम विस्तार में

उड़ना वाकई सुखद था

पर दिशाहीन कबतक?

Thursday, June 11, 2009

एक चाहत








एक चाहत
जो वक्त से
जूझना चाहती है
हालात से
लड़ना चाहती है
अपनी औक़ात भुलाकर …

Sunday, June 7, 2009

नौकरी



ज़िन्दगी के मायने में
इस तरह घुस गई है
कि इसके होने से मेरा होना तय है
नहीं तो सब बेबात है!
ये करती है तय
कि तुम्हें कितना आदर मिलना चाहिए
मेरे सम्मान का सूचक है
नौकरी!

न तो मेरी जेब भारी है
न ही मेरी ज़बान जानती है
कैसे करते हैं चापलूसी,
फिर कैसे मिलेगी नौकरी!
जबकि मेरी औकात है
मामूली-सी!

Friday, June 5, 2009

स्वप्न बुनती रही आँखें







स्वप्न बुनती रही आँखें

उम्मीदें उम्रदराज़ होती गई।

मंज़िल कभी पास कभी दूर

मुझे दिखती, मिलती, लड़ती, झगड़ती रही।

Wednesday, June 3, 2009

रोना छोड़ दिया है


रज्जू रोया नहीं
आज वह बदल गया है
अब तक तो रोता ही रहा
बिखरने की हालत छोड़
आज वह संभल गया है
किसी गीत में
बंगला न्यारा बन जाता है
वास्तव में
कुनबे भी बिखरे हैं.
भावुकता का रूदन
ज्ञान से सचेत हो जाता है.
चाहतों की भी सीमाएँ
अब बन गई है जो
धीरे-धीरे बढ़ती जा रही थी
पर
परिस्थितियों का नियंत्रण
घटता जा रहा है.
रज्जू नियंत्रण की क्षमताओं से
जूझ रहा है
रोना छोड़ दिया है!

Friday, May 29, 2009

दुनिया का ढाँचा


यूँ तो देह के भीतर छिपा है
कहीं मन
कहीं वो
लोग जिसे भावों का पुंज कहते हैं
लेकिन दुनिया का ढाँचा
इसके बिल्कुल उलट है
वहाँ मन दिखता है
ऊपर-ऊपर,
सब तरफ मित्रता
भाईचारा,
नैतिकता,
लेकिन बस ऊपर-ऊपर.
इसके ठीक नीचे
बहुत गहरे बहुत विस्तृत
फैली है देह
देह की बू
जब कभी उठ जाती है ऊपर तक
तब सड़ने लगता है मन
गंधियाने लगता है दिमाग
पिलपिला हो जाती है दुनिया
वो दुनिया
जिसका अधिकार
पुरूष के हाथ में है.

Monday, May 18, 2009

चेहरा


भिखारियों के नाम नहीं होते

होते हैं सिर्फ चेहरे,

चेहरा लंगड़े का, लूले का,

चेहरा भूखे काले नंगे बच्चे का,

चेहरा सूखी छाती से चिपकाये

माँ और उसके लाल का,

चेहरा बूढ़े क्षीणकाय का,

चेहरा सर्दी में फटे चीथड़ों के बीच

ठिठुरती बुढ़िया का,

चेहरा हाथ पैर तोड़कर

भिखारी बना दी गई गुड़िया का,

भिखारी सिर्फ चेहरा है?

जो टकराते ही

हाथ जेब में जाता है.

Thursday, May 14, 2009

कशमकश


ये बिल्कुल जरूरी नहीं
आप मेरी सारी इल्तज़ा
मान जायें
पर ये बहुत जरूरी है
आप मेरी हर इल्तज़ा पर
ग़ौर फ़रमायें
ये बिल्कुल ज़रूरी नहीं
मेरी हर बात सुनी जायें
मानी जायें
पर ये बहुत ज़रूरी है
आप जब आयें
लौटकर जल्दी आयें.
ये बिल्कुल ज़रूरी नहीं
आप मेरे साथ अपना कदम बढ़ायें
साथ आयें
पर ये बहुत जरूरी है
आप जहां भी जायें
मुझे अपने साथ ले जायें.
ये बिल्कुल जरूरी नहीं
आपके मन में क्या है
ये आप बतायें
पर ये बहुत जरूरी है
आप जो भी कहना चाहें
न छिपायें.

Wednesday, May 13, 2009

स्वार्थी हूँ


स्वार्थी हूँ
यह जानती हूँ!
इसलिए
कि तुम गलत न हो सको
मुझे एक और बार
होना पड़ेगा स्वार्थी.
इसलिए
कि तुम कह सको
तुमने मुझे जाना था सही
मुझे एक और बार
होना पड़ेगा स्वार्थी.
इसलिए
कि फिर तुम्हारी जुबाँ
न गुनहगार हो
न हो सिर लज्जित...
मुझे होना पड़ेगा स्वार्थी!

Tuesday, May 12, 2009

चित्रकथा





भूले हुए लम्हों का पता याद आया


मेरी मां बहुत भोली
बचपन के दिन, दोस्तों की होली
वो गांव मेरा घर
छोटे छोटे खेल बचपन का सफर


छोटा सा कंधा वो बड़ा सा बस्ता
कभी हुई हार, पर याद है जब मैं जीता


गांव से दिल्ली शहर में आए
बढ़ते ही गए कोई रोक न पाए


घोषित हुआ जब नेट का परिणाम
जे आर एफ निकला तब किया आराम


जन्म के बाद रहे सभी लम्हे याद
भूल गए एक दिन
आप अपना ही जन्म दिन...

Wednesday, May 6, 2009

बे-मौसम की बरसात में


बे-मौसम की बरसात में

झूम उठा रौशनी में नहाया शहर

शहर के बाशिंदों को

कब से था इंतज़ार

ऐसी ही किसी सुहानी शाम का,


उधर शहर के निकटवर्ती गाँवों में

बरबाद हो गई

गेहूँ की पकी पकाई फसल

बे-मौसम की बरसात ने

धो डाला साल भर के संतोष का स्वप्न।

Tuesday, May 5, 2009

चीज़ और छूट गई शायद


बाहर होते ही छूट गया

माँ का घर बेटी से

पर नहीं छूट पाया उससे

माँ, बाबा, बहन की ओर झुका मन

घर के संस्कार

खास दिनचर्या में पक चुका तन

हाँ चीज़ और छूट गई शायद

घर का बेटी से अपनापन !...

Sunday, April 19, 2009

किराए का घर


किराए के घर में रहकर भी
मैं उसे अपना ही मानती हूँ
चार दीवारों की कीमत चुका देने से
घर का ओहदा घट तो नहीं जाता।
हम इसके भीतर वही सब करते हैं
जो शायद
“अपने घर” में भी करते।
अपनी गृहस्थी की अनुभवों से
बड़ी बहन बहुत से हवाले देकर
अक्सर समझाती है
किराए के घर को अपना घर न समझो
उसके रखरखाव पर मत बर्बाद करो
मेहनत की गाढ़ी कमाई
तब मैं देखती हूँ
अपने घर की दीवारों को
जो मुस्कुरा देती हैं ऐसे
जैसे मायके में अपमानित हुई बेटी।

Monday, April 6, 2009

बड़ा मुश्किल है

मुझे मिल तो गया है

आज के समय का कल्पवृक्ष

पर उसे सींचना, पालना

बड़ा मुश्किल है।

जब तुम साथ होते हो

जब तुम साथ होते हो

तो ‘हम-तुम’ के अलावा

सारी गृहस्थी विषय में बतियाती हूँ

तुम्हारे न होने पर

तुम्हारे सिवा कुछ नहीं होता

किसी से भी बतियाने के लिए

तुम्हारे जिन विचारों पर

उलझ जाती हूँ तुमसे

उनमें दुनियादारी को शामिल करने के लिए

तुम्हारी अनुपस्थिति में

मेरे विचारों पर तुम्हारे वही विचार

अपना आधिपत्य जमा लेते हैं

न जाने कैसे, क्यों

मैं तुम्हें अपने ही भीतर पाती हूँ

जब तुम साथ नहीं होते।

Friday, March 13, 2009

मुझे याद है


मुझे याद है

तुमने कहा था

मेरे प्रश्न के उत्तर में :-

“तुम मेरे जीवन के

प्रत्येक विचार में

प्रत्येक खाली स्थान में

अपनी उपस्थिति दर्ज़ करवा चुकी हो।

मैं पानी का बिल जमा करवाने

चाहे कितनी भी लम्बी लाइन में खड़ा रहूँ

मुझे लगता है

वहाँ केवल हम-तुम हैं

एक-दूसरे से , एक-दूसरे को साझा करते,

मुझे लगता है लोगों की जाने

किस बात की जल्दबाजी है कि

वे परेशान हैं, हैरान हैं

किसी भी तरह लाइन में अपना स्थान

खोना नहीं चाहते

या तो पहुँच जाना चाहते हैं

सबसे आगे।

जबकि मैं खुश होता हूँ

सबसे पीछे खड़ा रहकर भी।।“