Sunday, June 29, 2008

मैं और दु:ख़


आजकल मैं बहुत दु:खी हूँ
क्योंकि मैं करती हूँ प्रेम
एक साथ सबसे
अपने माता-पिता, भाई-बहनों
दोस्तों से, प्रेमी से
अपने आस-पास के गरीब-गुरबों से
सबसे एक साथ!
पहले मैं बहुत सुखी थी
जब मुझे किसी की परवाह नहीं थी
न माँ-बाप की, न भाई-बहनों की
न दोस्तों की, प्रेमी कोई था नहीं
गरीब-गुरबों को तब मैं
धूर्त और नीच समझती थी.
यहाँ तक कि खुद की परवाह नहीं थी मुझे!

मेरे दु:ख के कारण हैं
मेरे माता-पिता का अत्यधिक विश्वास
मेरे भाई-बहनों की उम्मीदें
मेरे दोस्तों की नासमझी
मेरे प्रेमी की अच्छाइयाँ
और गरीब-गुरबों से जुड़ी संवेदनाएँ.

मैं दु:खी हूँ
क्योंकि अब मैं
उस तरह कठोर नहीं हो पाती
अपनी संवेदनाओं के प्रति,
मैं दु:खी हूँ क्योंकि अब मैं
अपनी कमज़ोरियों के आगे कमज़ोर पड़ जाती हूँ
दूसरों के प्यार को सहजता से अपना लेती हूँ
क्योंकि मैं डिप्लोमैटिक होना नहीं जानती
क्योंकि मैं दु:ख से मुस्कुराना नहीं जानती!
मैं दु:खी हूँ क्योंकि
दूसरों से की उम्मीदें हमेशा टूटती हैं
दूसरों की उम्मीदों को मैं भी तोड़ती हूँ
आजकल मैं बहुत दु:खी हूँ.

Tuesday, June 24, 2008

मेरे घर की रौशनी


तुम्हारा इंतज़ार था
तुम आ गई
मेरे घर की रौशनी,
तुम्हारी मासूम निगाहें
जब खुलती है
तो टिमटिमाने लगती है
आकाश-गंगा
इस छोटे से कमरे में,
तुम्हारे नन्हें लबों पर
अनजाने छिटकी हँसी
दिन और देह की थकान
चुरा लेती है
घर की रौशनी,
तुम्हारे नन्हें-नन्हें हाथों को
अपने हाथों पर रखकर
पूरा घर अपना बचपन जी लेता है,
छत पर बंधे तार से लटकते
तुम्हारे छोटे-छोटे कपड़े
मुहल्ले भर को ख़बर कर देते हैं,
तीज-त्यौहार मनाने
बहाने से तुम्हें खिलाने
चली आती हैं पड़ोसिने,
तुम्हारा इंतज़ार था
सभी को,
तुम आ गई
मेरे घर की रौशनी.

Monday, June 23, 2008

पिता की रिटायरमेंट पर












ठहर जाने के लिए आपकी ज़िन्दगी में,
मैं, पड़ाव आ ही गया.
गुज़रा वक्त नहीं जो आ न सकूँ पर
मैं, बदलाव आ ही गया.
गवाह हूँ मैं आपकी मेहनत का
संघर्ष का, पर भरे कंधों में
मैं, झुकाव आ ही गया.
अभी नहीं हुए हैं आप ज़िम्मेदारियों से निवृत पर
देखा न,
मैं, सुझाव आ ही गया.
हम सभी देंगे आपका साथ हर पग पर
अब इस डाली में, कुछ मुड़ाव आ ही गया.

____________________ गंगा

Sunday, June 22, 2008

ऐसी आवाज़ दे दो









अगर मैं दिल हूँ तुम्हारा,
तो मुझे ये दिल दे दो.
मैं माफ़ी नहीं चाहती,
बस हाथों में हाथ दे दो.
ज़िन्दगी भर न भूलूँ जो मैं,
वो अहसास दे दो.
बख्श दो मुझको - यूँ पल,
तुम तड़पाओ ना,
सोने से पहले
अपना एक ख्वाब दे दो.
आती-जाती सांसों में
एक शब्द सा सुनती हूँ,
इन धुंधले शब्दों को सुन सकूं मैं,
ऐसी इन्हें आवाज़ दे दो.
अगर कुछ न दे सको तो
फिर इतना करना,
जो कल मिलनी है
वो मौत आज दे दो.
________________चेतना

Saturday, June 21, 2008

दान-पुण्य (लघुकथा)










"क्या है! जब भी किताब लेकर बैठती हूँ दरवाजे पर घंटी ज़रूर बजती है. खोलने भी कोई नहीं आएगा."
दरवाजा खोला तो सामने दस-बारह साल की एक छोटी लड़की फटे मैले फ्रॉक में खड़ी थी. शरीर और बालों पर गर्द इतनी जमी थी मानों सालों से पानी की एक बूँद ने भी इसे नहीं छूआ...
"क्या है?"
मैंने एक ही पल में झुंझलाते हुए बोल तो दिया लेकिन उसका चेहरा देखकर खुद की तमीज़ पर शर्मसार हो गई. मैं बुआ को आवाज़ लगा एक कोने पर खड़ी हो गई. बुआ आई और उसे देखते ही चिल्ला उठी,-
"क्या है री! तूने घंटी को छूआ कैसे, दूर हो......क्या चाहिए?"
"माँ जी भूख से बेहाल हो रही हूँ. मेरे छोटे भाई बहनों ने भी कुछ नहीं खाया, कुछ खाना-दाना दे दो माँई." बुआ ने आँखें दिखाकर कहा,-
"अच्छा! खाना..दाना.. तुम लोगों को मैं खूब जानती हूँ, दो पैसे कमाने में हड्डियाँ टूटती है. माँगने से काम चल जाए तो कमाए कौन. चल जा कुछ नहीं है, रोज़-रोज़ चले आते हैं."
और बुआ ने दरवाजा उसके मुँह पर दे मारा.
मैं भी सोचती हुई-सी कि वो लड़की सच कहती होगी या झूठ, अपनी कुर्सी पर जा ही रही थी कि दरवाजे पर घंटी फिर बजी. अबकी बार ज़ोर से आवाज़ आई,-
"शनिदान, जो करेगा शनि का दान उसका होगा महाकल्याण. जय शनिदान. आज अमावस का शनिवार है, बेटा कुछ दान दक्षिणा दो."
मैं मुड़ती कि इससे पहले बुआ थाली में बहुत से चावल, खूब सारा आँटा, जमे हुए देशी घी का एक लौंदा, नमक इत्यादि सीदा और ग्यारह रूपये कुर्ते पैजामे के साथ लेकर दरवाजे की ओर दौड़ पड़ीं. हाथ जोड़कर शनिदान को दान अर्पण किया और बोली,-
"हे शनि महाराज, बस अपनी कृपा बनाए रखना."
दरवाजा आराम से बंद करके बुआ रसोई घर में चली गई.

Thursday, June 19, 2008

चेहरा










भिखारियों के नाम नहीं होते

होते हैं सिर्फ चेहरे,

चेहरा लंगड़े का, लूले का,

चेहरा भूखे काले नंगे बच्चे का,

चेहरा सूखी छाती से चिपकाये

माँ और उसके लाल का,

चेहरा बूढ़े क्षीणकाय का,

चेहरा सर्दी में फटे चीथड़ों के बीच

ठिठुरती बुढ़िया का,

चेहरा हाथ पैर तोड़कर

भिखारी बना दी गई गुड़िया का,

भिखारी सिर्फ चेहरा है?

जो टकराते ही

हाथ जेब में जाता है.
------------------------- * अपराजिता *

Wednesday, June 18, 2008

ज़रा सुनिये









ज़रा सुनिये,
कभी कभी
एक लम्हा फुरसत का
एक अपनी हसरत का
एक अदद मुस्कराने का
अदना सा मेरे सपनों में आने का
निकाल लिया कीजिए.
और हाँ,
एक लम्हा बतियाने का
एक अपनी सुनाने का
एक अदद इबादत का
अदना सा मुझे शरारत का
दे दिया कीजिए.

Monday, June 16, 2008

शेष है










शब्दों का एक सेतु
इन भावों के बीच बनना शेष है,
जानती हूँ शब्द नहीं प्रमाण
फिर भी उससे बंधे हैं क्यों प्राण?
तुमने कहा, करो और प्रतीक्षा,
तब तक करती रही मैं
अपने ही हृदय की समीक्षा.
किन्तु तब भी, यही एक खेद है
शब्दों का एक सेतु
इन भावों के बीच बनना शेष है.
चाहते हैं भाव ये,
शब्द का आधार
जिससे न उलझे रह सके
हृदय के उद्गार.
तुम कहो मैं सुनूँ
जीवन का शेष बनूँ.
यही एक स्वप्न है, यही एक सेतु है.
शब्दों का एक सेतु
इन भावों के बीच बनना शेष है.