Sunday, July 27, 2008

नौकरी


ज़िन्दगी के मायने में
इस तरह घुस गई है
कि इसके होने से मेरा होना तय है
नहीं तो सब बेबात है!
ये करती है तय
कि तुम्हें कितना आदर मिलना चाहिए
मेरे सम्मान का सूचक है
नौकरी!

न तो मेरी जेब भारी है
न ही मेरी ज़बान जानती है
कैसे करते हैं चापलूसी,
फिर कैसे मिलेगी नौकरी!
जबकि मेरी औकात है
मामूली-सी!

Wednesday, July 23, 2008

ये रातें करे बातें


ये रातें करे बातें
चले आओ
ये हवाएँ दे दुआएँ
चले आओ
ये इंतज़ार करे बेज़ार
चले आओ
ये मौसम करे हमदम
चले आओ!

Sunday, July 20, 2008

बेटे जैसा बनाने के लिए








वह जुटती रहती है
दिनभर
बुनती है भविष्य
समेटती है वर्तमान
अपनी दोनों बेटियों को
बेटे जैसा बनाने के लिए.

इस सज्जन को आप क्या कहेंगे?


ज़रा कहिए तो......
ऐसा तो नहीं कि
जो जस करहिं सो तस फल चाखा?

Saturday, July 19, 2008

कशमकश


ये बिल्कुल जरूरी नहीं
आप मेरी सारी इल्तज़ा
मान जायें
पर ये बहुत जरूरी है
आप मेरी हर इल्तज़ा पर
ग़ौर फ़रमायें
ये बिल्कुल ज़रूरी नहीं
मेरी हर बात सुनी जायें
मानी जायें
पर ये बहुत ज़रूरी है
आप जब आयें
लौटकर जल्दी आयें.
ये बिल्कुल ज़रूरी नहीं
आप मेरे साथ अपना कदम बढ़ायें
साथ आयें
पर ये बहुत जरूरी है
आप जहां भी जायें
मुझे अपने साथ ले जायें.
ये बिल्कुल जरूरी नहीं
आपके मन में क्या है
ये आप बतायें
पर ये बहुत जरूरी है
आप जो भी कहना चाहें
न छिपायें.

Thursday, July 17, 2008

स्वार्थी हूँ


स्वार्थी हूँ
यह जानती हूँ!
इसलिए
कि तुम गलत न हो सको
मुझे एक और बार
होना पड़ेगा स्वार्थी.
इसलिए
कि तुम कह सको
तुमने मुझे जाना था सही
मुझे एक और बार
होना पड़ेगा स्वार्थी.
इसलिए
कि फिर तुम्हारी जुबाँ
न गुनहगार हो
न हो सिर लज्जित...
मुझे होना पड़ेगा स्वार्थी!

Tuesday, July 15, 2008

पहाड़


पहाड़ के सूनेपन को बाँटने के लिए
उग आया है एक नन्हा पौधा
पहाड़ पर दोनों करेंगे खूब सारी बातें
सबसे
पर जब खत्म हो जायेंगी
दोनों की ढेर सारी बातें भी
तो दोनों ही हो जायेंगे
अकेले, उदास गुमसुम पहाड़ की तरह
फिर से
यह तो तय ही है तय ही था
क्योंकि हर एक को बाँटना होगा
अपना अकेलापन अपने ही आप से.

Sunday, July 13, 2008

उनकी आँखें

बाँट लिया करती हैं,
उनकी आँखें.
चुपके से हौले से न जाने क्या
छोड़ दिया करती हैं
उनकी आँखें.
भाँप लिया करती है मेरा ग़म
मेरी उदासी मेरी बौखलाहट,
मन तक टटोल लिया करती है
उनकी आँखें.
उनकी आँखें
जिनमें ज़िंदगी है रंग है
सपने हैं जो संग है,
सच कहूँ
मेरा आईना है
उनकी आँखें.

आरुषि की मृत्यु पर महाभोज

आरुषि की मृत्यु पर महाभोज इस विषय पर महत्त्वपूर्ण टिप्पणी पढ़ने को मिली. आप भी पढ सकते हैं शीर्षक को क्लिक करके.

Wednesday, July 2, 2008

एक गंभीर सवाल


मैंने भारत के भविष्य को
जलती सड़कों पर नंगे पैरों चलते देखा है.
मैंने भारत के भविष्य को
सड़कों पर, चौराहों पर
भीख मांगते देखा है.
मैंने भारत के भविष्य को
फटे बोरे में कबाड़ बीनते देखा है.
मैंने भारत के भविष्य को
भूख से बिलखते तड़पते देखा है.
मैंने देखा है
एक गंभीर सवाल बनते
भारत के भविष्य को.

Tuesday, July 1, 2008

मेरा शोर












जब भी हम लड़े-झगड़े
उसमें तुम कभी शामिल नहीं थे
इसलिए केवल मैं ही लड़ी
मैंने ही झगड़ा भी किया.
उन पलों में तुम हमेशा रहे
शांत, उदास और परेशान.
आँखें हजारों सवालों के साथ
बस मेरे चेहरे को तमतमाते
देखती रही,
तुम्हारे भोले से चेहरे पर
उस पीड़ा को,
मैं उन क्षणों में भी
पढ़ सकती थी जिन क्षणों में
मैं विवेक रहित रही.
मैं जानती रहती हूँ, पर तब भी
न जाने ऐसा क्या होता है
कि जानना नहीं चाहती,
गुस्से में कुछ भी.
कि जो कुछ भी होता था वह
केवल मेरे ही इच्छा के विरूद्ध नहीं
तुम्हारी भी मर्ज़ी से बाहर ही था.
बस जो मनचाहा नहीं हुआ,
उस पर बिगड़ गई, ठीक वैसे ही
जैसे दूसरे तुम पर बिगड़ते हैं
पर मैं तो तुम्हारी अपनी हूँ न
या तुम्हारे शब्दों में कहूँ कि
मैं तो तुम में ही हूँ न.

इन बीते सालों में
तुम समंदर की तरह गहराते ही गए
और मैं नदी की तरह
मचाती ही रही शोर
मैं चाहती हूँ
सच में चाहती हूँ शिद्दत से
कि सीख लूँ तुमसे
गहराई और विस्तार का सार
पर अब तक रास्ते में हूँ
शायद इसलिये नहीं सीख सकूँगी
लेकिन यह तो तय है कि
जब होगा संगम, तब
तुम्हारी गहराई में
विलीन हो जाएगा
मेरा शोर.