Friday, May 29, 2009

दुनिया का ढाँचा


यूँ तो देह के भीतर छिपा है
कहीं मन
कहीं वो
लोग जिसे भावों का पुंज कहते हैं
लेकिन दुनिया का ढाँचा
इसके बिल्कुल उलट है
वहाँ मन दिखता है
ऊपर-ऊपर,
सब तरफ मित्रता
भाईचारा,
नैतिकता,
लेकिन बस ऊपर-ऊपर.
इसके ठीक नीचे
बहुत गहरे बहुत विस्तृत
फैली है देह
देह की बू
जब कभी उठ जाती है ऊपर तक
तब सड़ने लगता है मन
गंधियाने लगता है दिमाग
पिलपिला हो जाती है दुनिया
वो दुनिया
जिसका अधिकार
पुरूष के हाथ में है.

Monday, May 18, 2009

चेहरा


भिखारियों के नाम नहीं होते

होते हैं सिर्फ चेहरे,

चेहरा लंगड़े का, लूले का,

चेहरा भूखे काले नंगे बच्चे का,

चेहरा सूखी छाती से चिपकाये

माँ और उसके लाल का,

चेहरा बूढ़े क्षीणकाय का,

चेहरा सर्दी में फटे चीथड़ों के बीच

ठिठुरती बुढ़िया का,

चेहरा हाथ पैर तोड़कर

भिखारी बना दी गई गुड़िया का,

भिखारी सिर्फ चेहरा है?

जो टकराते ही

हाथ जेब में जाता है.

Thursday, May 14, 2009

कशमकश


ये बिल्कुल जरूरी नहीं
आप मेरी सारी इल्तज़ा
मान जायें
पर ये बहुत जरूरी है
आप मेरी हर इल्तज़ा पर
ग़ौर फ़रमायें
ये बिल्कुल ज़रूरी नहीं
मेरी हर बात सुनी जायें
मानी जायें
पर ये बहुत ज़रूरी है
आप जब आयें
लौटकर जल्दी आयें.
ये बिल्कुल ज़रूरी नहीं
आप मेरे साथ अपना कदम बढ़ायें
साथ आयें
पर ये बहुत जरूरी है
आप जहां भी जायें
मुझे अपने साथ ले जायें.
ये बिल्कुल जरूरी नहीं
आपके मन में क्या है
ये आप बतायें
पर ये बहुत जरूरी है
आप जो भी कहना चाहें
न छिपायें.

Wednesday, May 13, 2009

स्वार्थी हूँ


स्वार्थी हूँ
यह जानती हूँ!
इसलिए
कि तुम गलत न हो सको
मुझे एक और बार
होना पड़ेगा स्वार्थी.
इसलिए
कि तुम कह सको
तुमने मुझे जाना था सही
मुझे एक और बार
होना पड़ेगा स्वार्थी.
इसलिए
कि फिर तुम्हारी जुबाँ
न गुनहगार हो
न हो सिर लज्जित...
मुझे होना पड़ेगा स्वार्थी!

Tuesday, May 12, 2009

चित्रकथा





भूले हुए लम्हों का पता याद आया


मेरी मां बहुत भोली
बचपन के दिन, दोस्तों की होली
वो गांव मेरा घर
छोटे छोटे खेल बचपन का सफर


छोटा सा कंधा वो बड़ा सा बस्ता
कभी हुई हार, पर याद है जब मैं जीता


गांव से दिल्ली शहर में आए
बढ़ते ही गए कोई रोक न पाए


घोषित हुआ जब नेट का परिणाम
जे आर एफ निकला तब किया आराम


जन्म के बाद रहे सभी लम्हे याद
भूल गए एक दिन
आप अपना ही जन्म दिन...

Wednesday, May 6, 2009

बे-मौसम की बरसात में


बे-मौसम की बरसात में

झूम उठा रौशनी में नहाया शहर

शहर के बाशिंदों को

कब से था इंतज़ार

ऐसी ही किसी सुहानी शाम का,


उधर शहर के निकटवर्ती गाँवों में

बरबाद हो गई

गेहूँ की पकी पकाई फसल

बे-मौसम की बरसात ने

धो डाला साल भर के संतोष का स्वप्न।

Tuesday, May 5, 2009

चीज़ और छूट गई शायद


बाहर होते ही छूट गया

माँ का घर बेटी से

पर नहीं छूट पाया उससे

माँ, बाबा, बहन की ओर झुका मन

घर के संस्कार

खास दिनचर्या में पक चुका तन

हाँ चीज़ और छूट गई शायद

घर का बेटी से अपनापन !...