Monday, December 22, 2008

तुम्हारी आँखें……

जब ढलता सूरज आख़िरी बार चमकता

मेरी आँखें वहीं थम जाया करती

और तुम्हारी आँखें……

किसी गाने की दो पंक्तियाँ चुराकर

तुम बताने की न बताने वाली कोशिश करते

और हम हँसकर समझ जाते

वही जो हम हर पल के साथ में

अपनी हर बात में

एक दूसरे से कह देने के लिए

वक्त को थामे रहना चाहते थे !

Friday, December 19, 2008

कुछ हाइकू


1.
एक चाहत
जो वक्त से
जूझना चाहती है
हालात से
लड़ना चाहती है
अपनी औक़ात भुलाकर …

2.
तुमने दिए पंख
कहा उड़ो…
दिखाया आकाश
जिसके असीम विस्तार में
उड़ना वाकई सुखद था
पर दिशाहीन कबतक?

3.
ज्यों चुरा लेता है
गर्मी का मौसम
बादलों से थोड़ी बारिश
सर्दी का मौसम
गुनगुनी धूप की तपिश
मैं चुरा लेना चाहती हूँ
वक्त
तुमसे मिलने का…

4.
हम
नींद तो चाहते हैं
लेकिन थकना नहीं
साथ तो चाहते हैं
हाथ देना नहीं
कैसा समय है?
जब हम
सफल होना चाहते हैं
सार्थक नहीं !

Tuesday, November 25, 2008

सर्दी और तुम


कड़ाके की सर्दी में
मैं तुम्हें याद करती हूँ
तुम्हारी हरी वाली जैकेट के साथ
जिसकी मुलायम गर्म जेबों में
अपने हाथ ठूँसकर बैठना
कितना अच्छा लगता है…
मैं तुम्हें याद करती हूँ
तुम्हारे फॅर वाले
ब्राउन स्वेटर के साथ
जिसका मखमली अहसास
तुम्हारे पास सरक आने को
कितना ललचाता है…
कड़ाके की सर्दी में
तुम बहुत याद आते हो.

Tuesday, September 23, 2008

तुम कहाँ?


तुम्हारी ख़ामोशी में
तुम कहाँ?
तुम्हारी बोलियों में
सुर कहाँ?
तुम्हारी तन्हाइयों में
तुम तो हो,
तुम्हारे होने का
मतलब कहाँ?

तुम्हें किसी की सादगी
जँचती तो है
खुद के जीने में यही
हसरत कहाँ?
किसी के हालात सिर्फ़
उसके अपने हैं नहीं
इस हक़ीकत को
तुम समझे कहाँ?

तेरी नासमझी के लिए
मैं भी ज़िम्मेदार हूँ
दो पल के लिए ही सही
तुमसे कहते हैं कहाँ?.

Friday, September 12, 2008

मैं और तुम


मेरी ताकत मेरी कमज़ोरी

मेरा साहस मेरी सीनाजोरी हो तुम

मेरा रास्ता मेरी हद

मेरी राहत मेरा दर्द हो तुम

मेरी बेरूखी मेरी हँसी

मेरी आरजू मेरी खुशी हो तुम

ज़िन्दगी की सुबह से शुरू तुम

रात को ख्वाब बन

आँखों से सिमट आते हो

मैं तुम से हूँ

जब भी होते हो दूर

अहसास दिलाते हो.

Tuesday, September 9, 2008

चाँद और सूरज


बचपन से
आसमान में टहलते चाँद ने
उस हर वक्त में दिया है मेरा साथ
जब कोई भी नहीं होता था पास.
उन बहुत लम्बी काली रातों को
मैंने हर बार गुज़ारा है चाँद के साथ
जिनमें सपनों के टूट जाने की टीस थी
और हर बार उसी चाँद ने
मुझे ज़िन्दगी को जीने की उम्मीद दी
शायद उसे अफ़सोस था
न होने का मेरे साथ उजाले में
इसीलिए 'आप' आ गये इस वीराने में
अब मेरे साथ
तारों से झिलमिलाते नए ख्वाब हैं
चाँद ही नहीं अब सूरज भी मेरे साथ है.

Tuesday, September 2, 2008

जल: जीवन भी, प्रलय भी


आज सुबह पानी नहीं आया
सोसाइटी ने वाटर टैंकर मंगवाया
पानी की बूँद-बूँद को लोग तरह रहे थे लड़ झगड़कर अपनी बाल्टियाँ भर रहे थे
इधर टैंकर पर लिखा था
'जल ही जीवन है'
उधर टेलीविजन पर आ रहा था समाचार
बाढ़ से बिहार हो रहा लाचार
लाखों की तादाद में लोग बेघर हुए
मरने वालों की संख्या को छिपा लिया गया
एक बिजली के तार से लटकती रहीं
तीन ज़िन्दगियाँ चार घंटे तक
ये तो साबित हो गया,
आदमी लड़ सकता है जीवन के लिए
अपनी आख़िरी साँस आख़िरी दम तक
बारिश ने मुम्बई को जब दहलाया था
हर समाचार चैनल ने
मुम्बई के साहस को सलाम बजाया था
बिहार के हालात पर वही चैनल
लाइव-फुटेज दिखा रहे हैं
नई-नई तस्वीरें लाकर टी.आर.पी. बढ़ा रहे हैं
बारह दिन बाद देश के सर्वेसर्वा को
वक्त मिल ही गया जायज़ा लेने का
उन्होंने तोहफे में मुख्यमंत्री को दे दी है
राहत राशि और राहत अनाज.
देशवासियों से अपील कर रहे हैं
सभी समाचार चैनल
“आप बने रहिए हमारे साथ
आप कहीं मत जाइएगा
हम हाज़िर होंगें
कुछ और ताज़ा तस्वीरों
कुछ और बाढ़ ग्रस्तों के साथ”
अब ये बेघर कहाँ जायेंगे?
कहाँ जाकर अपना आशियाना बनायेंगे?
मुम्बई से आसाम तक अहिन्दी भाषियों के लिए
राजनीति का बिगुल बज ही चुका
जम्मू-कश्मीर में भयानक दंगा हुआ
उड़ीसा पर साम्प्रदायिकता की शनिदशा चल रही है
दिल्ली के दिल पर तो यूँ भी बोझ बहुत है
मध्यप्रदेश तो ख़ुद से ही त्रस्त है
दक्षिण भारत की तो हमें ख़बर ही नहीं
पर ये तो तय है राजनीति वहाँ भी कम नहीं
जितना पानी बिहार के गाँवों में पसरा है
उससे कहीं ज्यादा पीड़ितों की आँखों से बरसा है.
आज टैंकर के पीछे लिखा वाक्य
बदलने को जी चाहता है
जल के जीवनदायी होने पर
एक प्रश्न चिह्न लग जाता है.

Friday, August 22, 2008

जिस रात की सुबह नहीं


राहुल के पिता शर्मा जी पर तमतमा रहे थे:
“ऐसी धोखाधड़ी, शर्मा जी मैं आपको सज्जन व्यक्ति समझ रहा था और आप..”

“जी, आप क्या कह..... मैं कुछ समझा नहीं..”

घबराहट और बौखलाहट में शर्मा जी के वाक्य अधूरे रह गए. राहुल के पिता फिर भड़के:
“ऐसी कुल्टा लड़की! हमारे ही पल्ले बाँधनी थी. वो तो वक्त रहते बात सामने आ गई. हम खानदानी लोग हैं, ऐसी लड़की हमारे घर की बहु....आपको शर्म आनी चाहिए. आपने सोचा भी कैसे? छोटा-मोटा मीन-मेख तो चल जाता, पर बलात्कार..!”

शर्मा जी शिथिल पड़ गए. जिस बात को छिपाने के लिए उन्होंने अपाहिज लड़के को भी अपना लिया था. वो बात इस तरह...इस वक्त...हे भगवान!

राहुल के पिता के अंगारे फिर दहके:
“इतना बड़ा धोखा! ये संबंध यहीं ख़त्म!”

शर्मा जी ने खुद को बटोरकर रूंधे हुए गले से कहा:
“आपका उत्तेजित होना लाज़िमी है, लेकिन इसमें बच्ची का क्या दोष! मेरी बेटी गुणी है, सुशील है, पढ़ी-लिखी है, आत्मनिर्भर है और सबसे बढ़कर उसकी खुशी अपने परिवार की खुशी में ही है. यह तो दुर्घटना थी, क्या इससे उसके गुण गुण नहीं रह जाते. इसका दंश उससे तो झेला भी न जाता था. फाँसी लगा रही थी. वो तो इसके भाई ने देख लिया..”

“आपकी कोई दलील इस कलंक को नहीं धो सकती. बलात्कार भी उन्हीं लड़कियों के साथ होता है जो चरित्रहीन होती है. सड़क चलती हर लड़की के साथ तो नहीं होता, और क्या यही लड़की बची है हमारे लिए, हमारा बेटा अपाहिज है, उस पर कोई कलंक नहीं लगा, फिर हम कोई समझौता क्यों करें? “

उस अभिशप्त तिथि ने निशा का क्या कुछ नहीं छीना था और आज ..... वह अचेत हो गिर पड़ी. माँ ने उसे संभाला और रोने लगी. उधर दुखी-अपमानित-लज्जित शर्मा जी अपनी विवशता पर चींखे:
“क्यों रो रही है इस कलंकिनी के लिए, मरती भी तो नहीं है, मर जाए तो पाप धुले. मर कर ही इसका और हमारा उद्धार होगा.”

कैसा नंगा और वीभत्स सत्य था जो एक नहीं पूरे परिवार को अपने स्याह रंग में लील गया. और न जाने कब तक लीलता रहेगा..............!

बहुत जी है


आज तुमसे बातें करने का
बहुत जी है
आज तुम्हारे साथ होने का
बहुत जी है
तुमने उस दिन माँगा था हाथ
चाहा था साथ
चलने को उस राह पर.
जब रोशनाइयों में सिमट रहे थे
घुल रहे थे ख्वाब
जला दूँ दिया चाहा था तुमने
मगर मैं अपने ‘मैं’ से
‘तुम’ तक नहीं पहुँच पाई
आज जब देखा कि अब भी
तुम ‘तुम’ हो उसी तरह से
जैसे थे साथ की चाह में
तो उतर आई हूँ
‘मैं’ और ‘तुम’ से
हम हो जाने के लिए
तुम से वह प्रेम पाने के लिए
जिसे तुमने मेरा अधिकार
सम्मान बनाए रखा
तब भी जब मैं नहीं थी
उसी तरह जब मैं थी
आज तुम्हारे साथ ज़िन्दगी जी लेने का
बहुत जी है!
बहुत जी है!!

अब ख़त नहीं आता


बचपन में मैं डाक टिकट जमा करती
कभी सबकी चिट्ठियों से उतार कर
कभी पिताजी के लाये हुए टिकटों में से
एक आध छिपा कर
तब लैटर बॉक्स मुझे बड़ा प्रिय था
हर दिन कोई न कोई ख़त ज़रूर आता
मामा जी तो हमेशा लिखते
वो बम्बई वाली सहेली भी
और पिता जी के ख़तों का तो हिसाब ही नहीं
घर के हर सदस्य के नाम ख़त आते
हम तो डाकिया चाचा से भी ख़ूब घुल-मिल गए थे
त्यौहारों पर माँ उनको मिठाई देती
उनकी मेहरारू और बच्चों के कपड़े भी
उस समय ग्रीटिंग भेजने का भी चलन था
पैसे खर्च करने को मिलते कहाँ थे
सो ख़ुद ही बनाकर सबको भेजते
सारी दुपहरी, यही तो काम करते
हम नहीं जानते थे कि बहुत जल्द
यह सिलसिला इतिहास बनने वाला है
अब तो हर कोई मोबाइल वाला है
कागज़ और क़लम कहीं कोने में पड़े हैं
घर के बाहर लटके लैटर बॉक्स
बैंकों के चिट्ठियों और कम्पीटिशन्स के रोलनम्बरों से अटे पड़े हैं
उनमें ऐसा कोई ख़त नहीं आता
जो मुझसे मेरा हाल पूछता हो
और अपनी ख़ैर ख़बर सुनाता हो.

Friday, August 8, 2008

कितना प्रेम है....


कितना प्रेम है....
क्या तभी जान पाओगे
जब मैं तुम्हें दूँ
गुलाब का लाल फूल.
अगर मैं गेंदे का फूल दूँ
या कोई फूल न भी दूँ
तो क्या जानना मुश्किल होगा
कितना प्रेम है..

मैं चाहती हूँ हमारे प्रेम को
इन छोटे-छोटे उपमानों की
या अन्य किसी सामानों की
कोई ज़रूरत न रह जाए.
हमें न हो इंतज़ार
किसी दिन विशेष का
किसी तोहफे का
कि हमें जताना पड़े
कितना प्रेम है.

Sunday, July 27, 2008

नौकरी


ज़िन्दगी के मायने में
इस तरह घुस गई है
कि इसके होने से मेरा होना तय है
नहीं तो सब बेबात है!
ये करती है तय
कि तुम्हें कितना आदर मिलना चाहिए
मेरे सम्मान का सूचक है
नौकरी!

न तो मेरी जेब भारी है
न ही मेरी ज़बान जानती है
कैसे करते हैं चापलूसी,
फिर कैसे मिलेगी नौकरी!
जबकि मेरी औकात है
मामूली-सी!

Wednesday, July 23, 2008

ये रातें करे बातें


ये रातें करे बातें
चले आओ
ये हवाएँ दे दुआएँ
चले आओ
ये इंतज़ार करे बेज़ार
चले आओ
ये मौसम करे हमदम
चले आओ!

Sunday, July 20, 2008

बेटे जैसा बनाने के लिए








वह जुटती रहती है
दिनभर
बुनती है भविष्य
समेटती है वर्तमान
अपनी दोनों बेटियों को
बेटे जैसा बनाने के लिए.

इस सज्जन को आप क्या कहेंगे?


ज़रा कहिए तो......
ऐसा तो नहीं कि
जो जस करहिं सो तस फल चाखा?

Saturday, July 19, 2008

कशमकश


ये बिल्कुल जरूरी नहीं
आप मेरी सारी इल्तज़ा
मान जायें
पर ये बहुत जरूरी है
आप मेरी हर इल्तज़ा पर
ग़ौर फ़रमायें
ये बिल्कुल ज़रूरी नहीं
मेरी हर बात सुनी जायें
मानी जायें
पर ये बहुत ज़रूरी है
आप जब आयें
लौटकर जल्दी आयें.
ये बिल्कुल ज़रूरी नहीं
आप मेरे साथ अपना कदम बढ़ायें
साथ आयें
पर ये बहुत जरूरी है
आप जहां भी जायें
मुझे अपने साथ ले जायें.
ये बिल्कुल जरूरी नहीं
आपके मन में क्या है
ये आप बतायें
पर ये बहुत जरूरी है
आप जो भी कहना चाहें
न छिपायें.

Thursday, July 17, 2008

स्वार्थी हूँ


स्वार्थी हूँ
यह जानती हूँ!
इसलिए
कि तुम गलत न हो सको
मुझे एक और बार
होना पड़ेगा स्वार्थी.
इसलिए
कि तुम कह सको
तुमने मुझे जाना था सही
मुझे एक और बार
होना पड़ेगा स्वार्थी.
इसलिए
कि फिर तुम्हारी जुबाँ
न गुनहगार हो
न हो सिर लज्जित...
मुझे होना पड़ेगा स्वार्थी!

Tuesday, July 15, 2008

पहाड़


पहाड़ के सूनेपन को बाँटने के लिए
उग आया है एक नन्हा पौधा
पहाड़ पर दोनों करेंगे खूब सारी बातें
सबसे
पर जब खत्म हो जायेंगी
दोनों की ढेर सारी बातें भी
तो दोनों ही हो जायेंगे
अकेले, उदास गुमसुम पहाड़ की तरह
फिर से
यह तो तय ही है तय ही था
क्योंकि हर एक को बाँटना होगा
अपना अकेलापन अपने ही आप से.

Sunday, July 13, 2008

उनकी आँखें

बाँट लिया करती हैं,
उनकी आँखें.
चुपके से हौले से न जाने क्या
छोड़ दिया करती हैं
उनकी आँखें.
भाँप लिया करती है मेरा ग़म
मेरी उदासी मेरी बौखलाहट,
मन तक टटोल लिया करती है
उनकी आँखें.
उनकी आँखें
जिनमें ज़िंदगी है रंग है
सपने हैं जो संग है,
सच कहूँ
मेरा आईना है
उनकी आँखें.

आरुषि की मृत्यु पर महाभोज

आरुषि की मृत्यु पर महाभोज इस विषय पर महत्त्वपूर्ण टिप्पणी पढ़ने को मिली. आप भी पढ सकते हैं शीर्षक को क्लिक करके.

Wednesday, July 2, 2008

एक गंभीर सवाल


मैंने भारत के भविष्य को
जलती सड़कों पर नंगे पैरों चलते देखा है.
मैंने भारत के भविष्य को
सड़कों पर, चौराहों पर
भीख मांगते देखा है.
मैंने भारत के भविष्य को
फटे बोरे में कबाड़ बीनते देखा है.
मैंने भारत के भविष्य को
भूख से बिलखते तड़पते देखा है.
मैंने देखा है
एक गंभीर सवाल बनते
भारत के भविष्य को.

Tuesday, July 1, 2008

मेरा शोर












जब भी हम लड़े-झगड़े
उसमें तुम कभी शामिल नहीं थे
इसलिए केवल मैं ही लड़ी
मैंने ही झगड़ा भी किया.
उन पलों में तुम हमेशा रहे
शांत, उदास और परेशान.
आँखें हजारों सवालों के साथ
बस मेरे चेहरे को तमतमाते
देखती रही,
तुम्हारे भोले से चेहरे पर
उस पीड़ा को,
मैं उन क्षणों में भी
पढ़ सकती थी जिन क्षणों में
मैं विवेक रहित रही.
मैं जानती रहती हूँ, पर तब भी
न जाने ऐसा क्या होता है
कि जानना नहीं चाहती,
गुस्से में कुछ भी.
कि जो कुछ भी होता था वह
केवल मेरे ही इच्छा के विरूद्ध नहीं
तुम्हारी भी मर्ज़ी से बाहर ही था.
बस जो मनचाहा नहीं हुआ,
उस पर बिगड़ गई, ठीक वैसे ही
जैसे दूसरे तुम पर बिगड़ते हैं
पर मैं तो तुम्हारी अपनी हूँ न
या तुम्हारे शब्दों में कहूँ कि
मैं तो तुम में ही हूँ न.

इन बीते सालों में
तुम समंदर की तरह गहराते ही गए
और मैं नदी की तरह
मचाती ही रही शोर
मैं चाहती हूँ
सच में चाहती हूँ शिद्दत से
कि सीख लूँ तुमसे
गहराई और विस्तार का सार
पर अब तक रास्ते में हूँ
शायद इसलिये नहीं सीख सकूँगी
लेकिन यह तो तय है कि
जब होगा संगम, तब
तुम्हारी गहराई में
विलीन हो जाएगा
मेरा शोर.

Sunday, June 29, 2008

मैं और दु:ख़


आजकल मैं बहुत दु:खी हूँ
क्योंकि मैं करती हूँ प्रेम
एक साथ सबसे
अपने माता-पिता, भाई-बहनों
दोस्तों से, प्रेमी से
अपने आस-पास के गरीब-गुरबों से
सबसे एक साथ!
पहले मैं बहुत सुखी थी
जब मुझे किसी की परवाह नहीं थी
न माँ-बाप की, न भाई-बहनों की
न दोस्तों की, प्रेमी कोई था नहीं
गरीब-गुरबों को तब मैं
धूर्त और नीच समझती थी.
यहाँ तक कि खुद की परवाह नहीं थी मुझे!

मेरे दु:ख के कारण हैं
मेरे माता-पिता का अत्यधिक विश्वास
मेरे भाई-बहनों की उम्मीदें
मेरे दोस्तों की नासमझी
मेरे प्रेमी की अच्छाइयाँ
और गरीब-गुरबों से जुड़ी संवेदनाएँ.

मैं दु:खी हूँ
क्योंकि अब मैं
उस तरह कठोर नहीं हो पाती
अपनी संवेदनाओं के प्रति,
मैं दु:खी हूँ क्योंकि अब मैं
अपनी कमज़ोरियों के आगे कमज़ोर पड़ जाती हूँ
दूसरों के प्यार को सहजता से अपना लेती हूँ
क्योंकि मैं डिप्लोमैटिक होना नहीं जानती
क्योंकि मैं दु:ख से मुस्कुराना नहीं जानती!
मैं दु:खी हूँ क्योंकि
दूसरों से की उम्मीदें हमेशा टूटती हैं
दूसरों की उम्मीदों को मैं भी तोड़ती हूँ
आजकल मैं बहुत दु:खी हूँ.

Tuesday, June 24, 2008

मेरे घर की रौशनी


तुम्हारा इंतज़ार था
तुम आ गई
मेरे घर की रौशनी,
तुम्हारी मासूम निगाहें
जब खुलती है
तो टिमटिमाने लगती है
आकाश-गंगा
इस छोटे से कमरे में,
तुम्हारे नन्हें लबों पर
अनजाने छिटकी हँसी
दिन और देह की थकान
चुरा लेती है
घर की रौशनी,
तुम्हारे नन्हें-नन्हें हाथों को
अपने हाथों पर रखकर
पूरा घर अपना बचपन जी लेता है,
छत पर बंधे तार से लटकते
तुम्हारे छोटे-छोटे कपड़े
मुहल्ले भर को ख़बर कर देते हैं,
तीज-त्यौहार मनाने
बहाने से तुम्हें खिलाने
चली आती हैं पड़ोसिने,
तुम्हारा इंतज़ार था
सभी को,
तुम आ गई
मेरे घर की रौशनी.

Monday, June 23, 2008

पिता की रिटायरमेंट पर












ठहर जाने के लिए आपकी ज़िन्दगी में,
मैं, पड़ाव आ ही गया.
गुज़रा वक्त नहीं जो आ न सकूँ पर
मैं, बदलाव आ ही गया.
गवाह हूँ मैं आपकी मेहनत का
संघर्ष का, पर भरे कंधों में
मैं, झुकाव आ ही गया.
अभी नहीं हुए हैं आप ज़िम्मेदारियों से निवृत पर
देखा न,
मैं, सुझाव आ ही गया.
हम सभी देंगे आपका साथ हर पग पर
अब इस डाली में, कुछ मुड़ाव आ ही गया.

____________________ गंगा

Sunday, June 22, 2008

ऐसी आवाज़ दे दो









अगर मैं दिल हूँ तुम्हारा,
तो मुझे ये दिल दे दो.
मैं माफ़ी नहीं चाहती,
बस हाथों में हाथ दे दो.
ज़िन्दगी भर न भूलूँ जो मैं,
वो अहसास दे दो.
बख्श दो मुझको - यूँ पल,
तुम तड़पाओ ना,
सोने से पहले
अपना एक ख्वाब दे दो.
आती-जाती सांसों में
एक शब्द सा सुनती हूँ,
इन धुंधले शब्दों को सुन सकूं मैं,
ऐसी इन्हें आवाज़ दे दो.
अगर कुछ न दे सको तो
फिर इतना करना,
जो कल मिलनी है
वो मौत आज दे दो.
________________चेतना

Saturday, June 21, 2008

दान-पुण्य (लघुकथा)










"क्या है! जब भी किताब लेकर बैठती हूँ दरवाजे पर घंटी ज़रूर बजती है. खोलने भी कोई नहीं आएगा."
दरवाजा खोला तो सामने दस-बारह साल की एक छोटी लड़की फटे मैले फ्रॉक में खड़ी थी. शरीर और बालों पर गर्द इतनी जमी थी मानों सालों से पानी की एक बूँद ने भी इसे नहीं छूआ...
"क्या है?"
मैंने एक ही पल में झुंझलाते हुए बोल तो दिया लेकिन उसका चेहरा देखकर खुद की तमीज़ पर शर्मसार हो गई. मैं बुआ को आवाज़ लगा एक कोने पर खड़ी हो गई. बुआ आई और उसे देखते ही चिल्ला उठी,-
"क्या है री! तूने घंटी को छूआ कैसे, दूर हो......क्या चाहिए?"
"माँ जी भूख से बेहाल हो रही हूँ. मेरे छोटे भाई बहनों ने भी कुछ नहीं खाया, कुछ खाना-दाना दे दो माँई." बुआ ने आँखें दिखाकर कहा,-
"अच्छा! खाना..दाना.. तुम लोगों को मैं खूब जानती हूँ, दो पैसे कमाने में हड्डियाँ टूटती है. माँगने से काम चल जाए तो कमाए कौन. चल जा कुछ नहीं है, रोज़-रोज़ चले आते हैं."
और बुआ ने दरवाजा उसके मुँह पर दे मारा.
मैं भी सोचती हुई-सी कि वो लड़की सच कहती होगी या झूठ, अपनी कुर्सी पर जा ही रही थी कि दरवाजे पर घंटी फिर बजी. अबकी बार ज़ोर से आवाज़ आई,-
"शनिदान, जो करेगा शनि का दान उसका होगा महाकल्याण. जय शनिदान. आज अमावस का शनिवार है, बेटा कुछ दान दक्षिणा दो."
मैं मुड़ती कि इससे पहले बुआ थाली में बहुत से चावल, खूब सारा आँटा, जमे हुए देशी घी का एक लौंदा, नमक इत्यादि सीदा और ग्यारह रूपये कुर्ते पैजामे के साथ लेकर दरवाजे की ओर दौड़ पड़ीं. हाथ जोड़कर शनिदान को दान अर्पण किया और बोली,-
"हे शनि महाराज, बस अपनी कृपा बनाए रखना."
दरवाजा आराम से बंद करके बुआ रसोई घर में चली गई.

Thursday, June 19, 2008

चेहरा










भिखारियों के नाम नहीं होते

होते हैं सिर्फ चेहरे,

चेहरा लंगड़े का, लूले का,

चेहरा भूखे काले नंगे बच्चे का,

चेहरा सूखी छाती से चिपकाये

माँ और उसके लाल का,

चेहरा बूढ़े क्षीणकाय का,

चेहरा सर्दी में फटे चीथड़ों के बीच

ठिठुरती बुढ़िया का,

चेहरा हाथ पैर तोड़कर

भिखारी बना दी गई गुड़िया का,

भिखारी सिर्फ चेहरा है?

जो टकराते ही

हाथ जेब में जाता है.
------------------------- * अपराजिता *