Tuesday, June 24, 2008

मेरे घर की रौशनी


तुम्हारा इंतज़ार था
तुम आ गई
मेरे घर की रौशनी,
तुम्हारी मासूम निगाहें
जब खुलती है
तो टिमटिमाने लगती है
आकाश-गंगा
इस छोटे से कमरे में,
तुम्हारे नन्हें लबों पर
अनजाने छिटकी हँसी
दिन और देह की थकान
चुरा लेती है
घर की रौशनी,
तुम्हारे नन्हें-नन्हें हाथों को
अपने हाथों पर रखकर
पूरा घर अपना बचपन जी लेता है,
छत पर बंधे तार से लटकते
तुम्हारे छोटे-छोटे कपड़े
मुहल्ले भर को ख़बर कर देते हैं,
तीज-त्यौहार मनाने
बहाने से तुम्हें खिलाने
चली आती हैं पड़ोसिने,
तुम्हारा इंतज़ार था
सभी को,
तुम आ गई
मेरे घर की रौशनी.

3 comments:

Udan Tashtari said...

बहुत बढ़िया. लिखते रहिये.

Anonymous said...

इस छोटे से कमरे में,
तुम्हारे नन्हें लबों पर
अनजाने छिटकी हँसी
दिन और देह की थकान
चुरा लेती है
bhut sundar.badhai ho.

महेन said...

यह नन्ही सी रौशनी मेरे घर भी आने वाली है। टैगोर ने कहा था, "every child comes with the message that God is not yet discouraged of men."
आपकी कविता पढ़कर वही अनुभूति हुई जो इन पंक्तियों को पढ़कर हुई थी।
शुभम।