Sunday, June 28, 2009
दान-पुण्य (लघुकथा)
"क्या है! जब भी किताब लेकर बैठती हूँ दरवाजे पर घंटी ज़रूर बजती है. खोलने भी कोई नहीं आएगा."
दरवाजा खोला तो सामने दस-बारह साल की एक छोटी लड़की फटे मैले फ्रॉक में खड़ी थी. शरीर और बालों पर गर्द इतनी जमी थी मानों सालों से पानी की एक बूँद ने भी इसे नहीं छूआ...
"क्या है?"
मैंने एक ही पल में झुंझलाते हुए बोल तो दिया लेकिन उसका चेहरा देखकर खुद की तमीज़ पर शर्मसार हो गई. मैं बुआ को आवाज़ लगा एक कोने पर खड़ी हो गई. बुआ आई और उसे देखते ही चिल्ला उठी,-
"क्या है री! तूने घंटी को छूआ कैसे, दूर हो......क्या चाहिए?"
"माँ जी भूख से बेहाल हो रही हूँ. मेरे छोटे भाई बहनों ने भी कुछ नहीं खाया, कुछ खाना-दाना दे दो माँई." बुआ ने आँखें दिखाकर कहा,-
"अच्छा! खाना..दाना.. तुम लोगों को मैं खूब जानती हूँ, दो पैसे कमाने में हड्डियाँ टूटती है. माँगने से काम चल जाए तो कमाए कौन. चल जा कुछ नहीं है, रोज़-रोज़ चले आते हैं."
और बुआ ने दरवाजा उसके मुँह पर दे मारा.
मैं भी सोचती हुई-सी कि वो लड़की सच कहती होगी या झूठ, अपनी कुर्सी पर जा ही रही थी कि दरवाजे पर घंटी फिर बजी. अबकी बार ज़ोर से आवाज़ आई,-
"शनिदान, जो करेगा शनि का दान उसका होगा महाकल्याण. जय शनिदान. आज अमावस का शनिवार है, बेटा कुछ दान दक्षिणा दो."
मैं मुड़ती कि इससे पहले बुआ थाली में बहुत से चावल, खूब सारा आँटा, जमे हुए देशी घी का एक लौंदा, नमक इत्यादि सीदा और ग्यारह रूपये कुर्ते पैजामे के साथ लेकर दरवाजे की ओर दौड़ पड़ीं. हाथ जोड़कर शनिदान को दान अर्पण किया और बोली,-
"हे शनि महाराज, बस अपनी कृपा बनाए रखना."
दरवाजा आराम से बंद करके बुआ रसोई घर में चली गई.
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4 comments:
Respected Sister,
This is not a rare incident,our elders live with this type of charity without caring for human dignity. It is now their fault but a way of living.
achha hai
जय हो शनि महाराज की!!
bhay bin shradhha na hoye gosain
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