Tuesday, June 23, 2009
बचपन की उम्र
मैं सुनाती हूँ अक्सर
अपनी आठ साल की भाँजी को
कितना अलग था
तुम्हारे बचपन से
हमारा बचपन।
तुम्हारे सारे खिलौने
मिल जाते हैं दुकानों पर
हम खुद बनाते थे खिलौने
कभी मिट्टी से
कभी टूटे फूटे डिब्बों से
घर का सारा कबाड़
माँ हमें दे देती
और हमें लगता
मिल गया दुनिया का सबसे कीमती खजाना।
मेरी भाँजी जानती है
कौन-कौन सी नई फिल्में
नए गाने,
नाच की नई-नई मुद्राएँ
आजकल चर्चा में है
हम जानते थे
वही लोकगीत
वही भजन
जिन्हें आँगन में खटिया पर बैठी
दादी दिनभर गुनगुनाती थी।
बड़ो से भी ज्यादा समझदारी
दुनियादारी की बातें जानती हैं
मेरी आठ साल की भाँजी
उसकी उम्र में हमें
दुनिया का अर्थ भी
समझ न आया होगा
वही नहीं
उसकी उम्र के तमाम बच्चे
वक्त से पहले बड़े हो गए।
किस रंग की फ्रॉक के साथ
कौन - सी क्लिप
कौन - सी चप्पल चलेगी
इसका ध्यान रखना उसके लिए ज़रूरी है
उसे आता भी है
जबकि हम पाँचों भाई-बहन
पहनते थे
एक ही थान के कपड़े से बनी
फ्रॉक, पैंट, बुर्शट
उसे देखकर लगता है
21वीं सदी में घट गई है
बचपन की उम्र!
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9 comments:
पराजिता जि आपने तो हमे बचपन की याद दिला दी बहुत सुन्दर और सत्य भाव हैं आभार्
पराजिता जि आपने तो हमे बचपन की याद दिला दी बहुत सुन्दर और सत्य भाव हैं आभार्
बचपन की उम्र छोटी हो गई है वाकई बहुत अच्छी रचना
bachapan ki yado se sarabor jisane jindgi ki rawani hai....
anupam vishya par abhinav andaaz me rachi gayi is adbhut kavita ko aur kavita ke srijankaar ko baar-baar badhaai !
haan, sachmuch hi purane aur abhi ke bachpan mein kaphi antar aa gaya hai.Par inmein aajkal ke bachchon ka kya kasoor.Bahut achchhi rachna lagi aapki.
Navnit Nirav
बहुत सही कहा!
bahut hi umda likhti hain aap........
aapko aage bhi padta rahunga....
hasna ho to aapka mere blog par swagat hai......
aapki chitrkari bhi gajab ki hai...
badhai........
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