हरी घास के दरीचों पर
जहाँ मेरे तुम्हारे बीच
दुनिया का अस्तित्व नहीं होता था
तुम कितने प्रेम भरे अंदाज़ में कहते
करो जो करना चाहती हो
बस एक बार आवाज़ देना
मैं तुम्हारे साथ खड़ा रहूँगा
तब तो तुम प्रेमी थे, ना!
सफ़र बहुत लम्बा नहीं था
पर हमने दूरियाँ बहुत सी तय कर लीं
जब मैं परेशान होती थी
तुम पूछ कर ही दम लेते
मेरी परेशानी का सबब क्या है
आज तुम समझते हो
परेशान रहना मेरी आदत है
“हम” तब हम थे
आज तुम “तुम” में
और मैं “मैं” में
सिमटते जा रहे हैं
सच है इस नश्वर संसार में
कुछ भी तो अमर नहीं
न सूर्य, न धरती
न ही प्रेम ।।
7 comments:
बहुत सुन्दर....
बेहतरीन रचना ..
बदलते हालात, बदलती सोच और फिर सवाल क्यूँ न उपजे प्रेम की नश्वरता पर भी
न जाने ऐसा क्यों होता है सब के साथ ?
सुंदर कविता जो दिल को छू गयी.
ज़िन्दगी की कडवी सच्चाई को अभिव्यक्त करती बेहतरीन रचना...बधाई...
नीरज
जीवन की सच्चाई बिना किसी लाग लपेट के..........मेरी तेरी उसकी बात ! खूबसूरत अभिव्यक्ति
लगभग तीन हजार वर्ष पूर्व तथागत गौतन बुद्ध ने अनित्य का सिद्धान्त प्रतिपादित किया था। जिसका अर्थ है कि जगत परिर्वतनशील है। दैहिक प्रेम के साथ भी वही सिद्धान्त लागू होता है। आपने अपनी रचना में उसे बड़ी खूबसूरती से पिरोया है। अच्छी रचना के लिए बधाई स्वीकरें।
सद्भावी -डॉ० डंडा लखनवी
बहुत अच्छा....मेरा ब्लागः"काव्य कल्पना" at http://satyamshivam95.blogspot.com .........साथ ही मेरी कविता "हिन्दी साहित्य मंच" पर भी.......आप आये और मेरा मार्गदर्शन करे...धन्यवाद
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