Tuesday, April 27, 2010

खाली कैनवास पर




















खाली कैनवास पर पहले
पेंसिल से कुछ बनाती हूँ
ताकि गलती हो तो मिटा सकूँ
जचे न तो हटा सकूँ

फिर संभल संभल कर
तैयार किए रंग भरती हूँ
अब गलती की कोई गुंजाइश नहीं

क्योंकि मैं जानती हूँ
मुझे अलग नहीं
सामान्य के बीच रहना है

5 comments:

संजय भास्‍कर said...

सुन्दर भावों को बखूबी शब्द जिस खूबसूरती से तराशा है। काबिले तारीफ है।

मनोज कुमार said...

सावधानी बुद्घिमत्ता की सबसे बड़ी सन्तान है ।

M VERMA said...

नेक खयाल है
सामान्य के बीच रहकर ही तो आत्मीयता अर्जित की जा सकती है
बहुत खूबसूरत रचना

Shekhar Kumawat said...

BAHUT KHUB

BADHAI IS KE LIYE AAP KO


SHEKHAR KUMAWAT

mridula pradhan said...

khoobsurat rachna.