
यूँ तो देह के भीतर छिपा है
कहीं मन
कहीं वो
लोग जिसे भावों का पुंज कहते हैं
लेकिन दुनिया का ढाँचा
इसके बिल्कुल उलट है
वहाँ मन दिखता है
ऊपर-ऊपर,
सब तरफ मित्रता
भाईचारा,
नैतिकता,
लेकिन बस ऊपर-ऊपर.
इसके ठीक नीचे
बहुत गहरे बहुत विस्तृत
फैली है देह
देह की बू
जब कभी उठ जाती है ऊपर तक
तब सड़ने लगता है मन
गंधियाने लगता है दिमाग
पिलपिला हो जाती है दुनिया
वो दुनिया
जिसका अधिकार
पुरूष के हाथ में है.