Friday, August 22, 2008

अब ख़त नहीं आता


बचपन में मैं डाक टिकट जमा करती
कभी सबकी चिट्ठियों से उतार कर
कभी पिताजी के लाये हुए टिकटों में से
एक आध छिपा कर
तब लैटर बॉक्स मुझे बड़ा प्रिय था
हर दिन कोई न कोई ख़त ज़रूर आता
मामा जी तो हमेशा लिखते
वो बम्बई वाली सहेली भी
और पिता जी के ख़तों का तो हिसाब ही नहीं
घर के हर सदस्य के नाम ख़त आते
हम तो डाकिया चाचा से भी ख़ूब घुल-मिल गए थे
त्यौहारों पर माँ उनको मिठाई देती
उनकी मेहरारू और बच्चों के कपड़े भी
उस समय ग्रीटिंग भेजने का भी चलन था
पैसे खर्च करने को मिलते कहाँ थे
सो ख़ुद ही बनाकर सबको भेजते
सारी दुपहरी, यही तो काम करते
हम नहीं जानते थे कि बहुत जल्द
यह सिलसिला इतिहास बनने वाला है
अब तो हर कोई मोबाइल वाला है
कागज़ और क़लम कहीं कोने में पड़े हैं
घर के बाहर लटके लैटर बॉक्स
बैंकों के चिट्ठियों और कम्पीटिशन्स के रोलनम्बरों से अटे पड़े हैं
उनमें ऐसा कोई ख़त नहीं आता
जो मुझसे मेरा हाल पूछता हो
और अपनी ख़ैर ख़बर सुनाता हो.

8 comments:

अनूप शुक्ल said...

लेकिन लिखे अब भी जाते हैं। ये देखिये|

admin said...

सही कहा आपने, अब लोगों के पास खत लिखने का वक्त ही नहीं रहा और न ही फैशन भी।इस सुंदर सी कविता के लिए बधाई स्वीकारें।
वैसे मेरा अनुभव थोडा सा जुदा है। अपने पास तो अबभी 25-30 खत महीने में आ ही जाते हैं। शायद यह लेखक टाइप होने का ही परिणाम है।

रंजन (Ranjan) said...

चिट्ठी आना बहुत कम हो गया है... लेकीन जब भी आती है.. मज़ा आ जाता है..

Udan Tashtari said...

आप सही कह रहे हैं ...

Udan Tashtari said...

रहे=रही

Batangad said...

कौन कहता है खत नहीं आते- बैंक, इंश्योरेंस कंपनी, जिसके शेयर खरीदे हों वो कंपनी, क्रेडिट कार्ड का हिसाब-- सब खत ही तो भेजते हैं

Abhishek Ojha said...

saalon ho gaye ... :(

सिद्धार्थ शंकर त्रिपाठी said...

बिलकुल सच है। अब ख़तों में वो बात कहाँ? चिठ्ठी लिखना, पोस्ट करना, और जवाब का इन्तजार करना यह एक बड़ा काम हुआ करता था। अब तो सब कुछ ठेंगे से (by finger tips on phone)हो जा रहा है।