Sunday, June 29, 2008

मैं और दु:ख़


आजकल मैं बहुत दु:खी हूँ
क्योंकि मैं करती हूँ प्रेम
एक साथ सबसे
अपने माता-पिता, भाई-बहनों
दोस्तों से, प्रेमी से
अपने आस-पास के गरीब-गुरबों से
सबसे एक साथ!
पहले मैं बहुत सुखी थी
जब मुझे किसी की परवाह नहीं थी
न माँ-बाप की, न भाई-बहनों की
न दोस्तों की, प्रेमी कोई था नहीं
गरीब-गुरबों को तब मैं
धूर्त और नीच समझती थी.
यहाँ तक कि खुद की परवाह नहीं थी मुझे!

मेरे दु:ख के कारण हैं
मेरे माता-पिता का अत्यधिक विश्वास
मेरे भाई-बहनों की उम्मीदें
मेरे दोस्तों की नासमझी
मेरे प्रेमी की अच्छाइयाँ
और गरीब-गुरबों से जुड़ी संवेदनाएँ.

मैं दु:खी हूँ
क्योंकि अब मैं
उस तरह कठोर नहीं हो पाती
अपनी संवेदनाओं के प्रति,
मैं दु:खी हूँ क्योंकि अब मैं
अपनी कमज़ोरियों के आगे कमज़ोर पड़ जाती हूँ
दूसरों के प्यार को सहजता से अपना लेती हूँ
क्योंकि मैं डिप्लोमैटिक होना नहीं जानती
क्योंकि मैं दु:ख से मुस्कुराना नहीं जानती!
मैं दु:खी हूँ क्योंकि
दूसरों से की उम्मीदें हमेशा टूटती हैं
दूसरों की उम्मीदों को मैं भी तोड़ती हूँ
आजकल मैं बहुत दु:खी हूँ.

6 comments:

महेन said...

मगर इस दु:ख में कोई भी सुख नहीं?
वह खैर एक अलग मुद्दा रहा; कितने अच्छे से आपने अपनी बात कह दी। खूब।
शुभम।

Anonymous said...

acche bhav acchi rachana. sundar rachana ke liye badhai. likhati rhe.

राज भाटिय़ा said...

यह दुख ही एक पुजा हे, लोग शांति के लिये इधर उधर भागते हे आप दुखी तो हे लेकिन आशांत नही,आप के दुख ने कितनो के दुख बांटे, आप की कविता बहुत कुछ कह गई,ध्न्यवाद एक अच्छी कविता के लिये

rakhshanda said...

बहुत सुंदर कविता है...बधाई

Udan Tashtari said...

अपनी कमज़ोरियों के आगे कमज़ोर पड़ जाती हूँ
दूसरों के प्यार को सहजता से अपना लेती हूँ
क्योंकि मैं डिप्लोमैटिक होना नहीं जानती
क्योंकि मैं दु:ख से मुस्कुराना नहीं जानती!


-बहुत सुन्दर अभिव्यक्ति है, बधाई.

Anonymous said...

कविता बहुत अच्छी है, दुख के अलावा कुछ सुख एवं सपनों पर भी किया कीजिए.