कुछ बंद दरवाजे हैं
कुछ रोज़ सुनी जाने वाली आवाज़ें
दीवारें हैं,
और बहुत कुछ है बिखरा हुआ
जिसे रोज़ समेटती हूँ
बस यही तो करती हूँ
अपनी ज़िन्दगियों को “हमारी” बनाने की कोशिश में
जितनी बार मुँह खोलती
बाँहें फैलाती
उतनी बार नासमझ करार दी जाती
उलटबाँसियों से दबा दिया जाता
उछलता कूदता मेरा मन
अनर्थों में जीता हमारा आज
अपने अपने भविष्य की ओर
अकेला ही बढ़ता जा रहा है
मेरे आँसू मेरा दर्द मेरा प्रेम
सिर्फ मेरे बनकर मुझमें ही विलीन होने लगे
जहाँ तक पहुँचकर इनको फलना था
वहाँ पहुँचकर ठूँठ में बदल गए...
4 comments:
मेरे आँसू मेरा दर्द मेरा प्रेम
सिर्फ मेरे बनकर मुझमें ही विलीन होने लगे
जहाँ तक पहुँचकर इनको फलना था
वहाँ पहुँचकर ठूँठ में बदल गए...
अपराजिता जी बहुत मार्मिक अभिव्यक्ति है। शुभकामनायें
अति मार्मिक..दिल में उतर गई!!
यह अत्यंत हर्ष का विषय है कि आप हिंदी में सार्थक लेखन कर रहे हैं।
हिन्दी के प्रसार एवं प्रचार में आपका योगदान सराहनीय है.
मेरी शुभकामनाएँ आपके साथ हैं.
नववर्ष में संकल्प लें कि आप नए लोगों को जोड़ेंगे एवं पुरानों को प्रोत्साहित करेंगे - यही हिंदी की सच्ची सेवा है।
निवेदन है कि नए लोगों को जोड़ें एवं पुरानों को प्रोत्साहित करें - यही हिंदी की सच्ची सेवा है।
वर्ष २०१० मे हर माह एक नया हिंदी चिट्ठा किसी नए व्यक्ति से भी शुरू करवाएँ और हिंदी चिट्ठों की संख्या बढ़ाने और विविधता प्रदान करने में योगदान करें।
आपका साधुवाद!!
नववर्ष की बहुत बधाई एवं अनेक शुभकामनाएँ!
समीर लाल
उड़न तश्तरी
bahut sundar abhivyakti, badhai!
kai bar aaisa hota hai apne sapne bas apne hi bankar rehjate hai aur khojate hai fir kabhi apne pass nahi rehete
bahot khub
dikshya
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