Sunday, April 19, 2009

किराए का घर


किराए के घर में रहकर भी
मैं उसे अपना ही मानती हूँ
चार दीवारों की कीमत चुका देने से
घर का ओहदा घट तो नहीं जाता।
हम इसके भीतर वही सब करते हैं
जो शायद
“अपने घर” में भी करते।
अपनी गृहस्थी की अनुभवों से
बड़ी बहन बहुत से हवाले देकर
अक्सर समझाती है
किराए के घर को अपना घर न समझो
उसके रखरखाव पर मत बर्बाद करो
मेहनत की गाढ़ी कमाई
तब मैं देखती हूँ
अपने घर की दीवारों को
जो मुस्कुरा देती हैं ऐसे
जैसे मायके में अपमानित हुई बेटी।

4 comments:

vijaymaudgill said...

क्या बात है, बहुत ख़ूब। एक नई सोच और नई कविता। मज़ा आ गया पढ़कर।

मैंने भी बरसों किराए के घर में गुज़ारे थे अपने माता-पिता और भाई बहन के साथ। हमने भी कभी उसे किराए का घर नहीं समझा। अच्छी लगी आपकी कविता।

परमजीत सिहँ बाली said...

बहुत बढिया कविता है। लेकिन आज कल ऐसे किराएदार बहुत कम मिलते हैं जो दूसरो के घर को अपना समझ कर रहें:))

ravishndtv said...

बहुत बढ़िया।

जितेन्द़ भगत said...

न जाने कि‍तने परि‍वार कि‍राए के घर से जिंदगी शुरू करते हैं और वहीं खत्‍म भी, तब आपकी कवि‍ता और भी महत्‍व की लगती है।