किराए के घर में रहकर भी
मैं उसे अपना ही मानती हूँ
चार दीवारों की कीमत चुका देने से
घर का ओहदा घट तो नहीं जाता।
हम इसके भीतर वही सब करते हैं
जो शायद
“अपने घर” में भी करते।
अपनी गृहस्थी की अनुभवों से
बड़ी बहन बहुत से हवाले देकर
अक्सर समझाती है
किराए के घर को अपना घर न समझो
उसके रखरखाव पर मत बर्बाद करो
मेहनत की गाढ़ी कमाई
तब मैं देखती हूँ
अपने घर की दीवारों को
जो मुस्कुरा देती हैं ऐसे
जैसे मायके में अपमानित हुई बेटी।
4 comments:
क्या बात है, बहुत ख़ूब। एक नई सोच और नई कविता। मज़ा आ गया पढ़कर।
मैंने भी बरसों किराए के घर में गुज़ारे थे अपने माता-पिता और भाई बहन के साथ। हमने भी कभी उसे किराए का घर नहीं समझा। अच्छी लगी आपकी कविता।
बहुत बढिया कविता है। लेकिन आज कल ऐसे किराएदार बहुत कम मिलते हैं जो दूसरो के घर को अपना समझ कर रहें:))
बहुत बढ़िया।
न जाने कितने परिवार किराए के घर से जिंदगी शुरू करते हैं और वहीं खत्म भी, तब आपकी कविता और भी महत्व की लगती है।
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