
जब भी हम लड़े-झगड़े
उसमें तुम कभी शामिल नहीं थे
इसलिए केवल मैं ही लड़ी
मैंने ही झगड़ा भी किया.
उन पलों में तुम हमेशा रहे
शांत, उदास और परेशान.
आँखें हजारों सवालों के साथ
बस मेरे चेहरे को तमतमाते
देखती रही,
तुम्हारे भोले से चेहरे पर
उस पीड़ा को,
मैं उन क्षणों में भी
पढ़ सकती थी जिन क्षणों में
मैं विवेक रहित रही.
मैं जानती रहती हूँ, पर तब भी
न जाने ऐसा क्या होता है
कि जानना नहीं चाहती,
गुस्से में कुछ भी.
कि जो कुछ भी होता था वह
केवल मेरे ही इच्छा के विरूद्ध नहीं
तुम्हारी भी मर्ज़ी से बाहर ही था.
बस जो मनचाहा नहीं हुआ,
उस पर बिगड़ गई, ठीक वैसे ही
जैसे दूसरे तुम पर बिगड़ते हैं
पर मैं तो तुम्हारी अपनी हूँ न
या तुम्हारे शब्दों में कहूँ कि
मैं तो तुम में ही हूँ न.
इन बीते सालों में
तुम समंदर की तरह गहराते ही गए
और मैं नदी की तरह
मचाती ही रही शोर
मैं चाहती हूँ
सच में चाहती हूँ शिद्दत से
कि सीख लूँ तुमसे
गहराई और विस्तार का सार
पर अब तक रास्ते में हूँ
शायद इसलिये नहीं सीख सकूँगी
लेकिन यह तो तय है कि
जब होगा संगम, तब
तुम्हारी गहराई में
विलीन हो जाएगा
मेरा शोर.