Monday, April 6, 2009

जब तुम साथ होते हो

जब तुम साथ होते हो

तो ‘हम-तुम’ के अलावा

सारी गृहस्थी विषय में बतियाती हूँ

तुम्हारे न होने पर

तुम्हारे सिवा कुछ नहीं होता

किसी से भी बतियाने के लिए

तुम्हारे जिन विचारों पर

उलझ जाती हूँ तुमसे

उनमें दुनियादारी को शामिल करने के लिए

तुम्हारी अनुपस्थिति में

मेरे विचारों पर तुम्हारे वही विचार

अपना आधिपत्य जमा लेते हैं

न जाने कैसे, क्यों

मैं तुम्हें अपने ही भीतर पाती हूँ

जब तुम साथ नहीं होते।

6 comments:

अनिल कान्त said...

दिल के भावों को यहाँ रखने के लिए शुक्रिया ...बहुत खूबसूरत रचना है

मेरी कलम - मेरी अभिव्यक्ति

Udan Tashtari said...

न जाने कैसे, क्यों

मैं तुम्हें अपने ही भीतर पाती हूँ

जब तुम साथ नहीं होते।


-बहुत भावपूर्ण.

Unknown said...

अपराजिता जी , बहुत सरल भाव प्रस्तुत करती यह रचना ।

लोकेन्द्र विक्रम सिंह said...

न जाने कैसे क्यों.... प्रश्न को आपने बहुत ही सरलता से प्रस्तुत किया है.....
बधाई....

परमजीत सिहँ बाली said...

बहुत सुन्दर भावपूर्ण रचना है।बधाई।

संगीता पुरी said...

बहुत सुंदर भावाभिव्‍यक्ति ... बधाई।