जब हम इतने छोटे थे कि
चल तो सकते थे ,पर
चलने की समझ नहीं थी,
तब गर्मियों की छुट्टियों में
दिल्ली की दिवालिया दुपहरियों से निकालकर
माँ हमें नानी-घर ले जातीं....
बस,ऑटो,साइकिल,गाड़ियां
तो हम घर के आस-पास रोज़ ही देख लेते
पर रेलगाडियाँ और प्लेटफ़ार्म
बस इन्ही दिनों देखने मिलते.....
तब हम इतने छोटे थे की
देखते तो थे पर समझते नहीं थे ,
और देखने पर चीज़ें
अपने वास्तविक आकार से दस गुना बड़ी दीखतीं.....
रेल ''रेला'' बन जाती
सर पर मनों सामान लादे,भागते
मुसाफिरों का रेला !!!!
कुलियों के लाल लाल कपड़े
प्लेटफ़ार्म और भीड़ के चित्र में अलग ही दीखते,
छोटी-छोटी दुकानें खिड़कियों पर आ टिकतीं......
हम हैरत और डर से
रेल की पटरियों पर गश्त लगाते चूहों को देखते,
माँ के ना देखने की हिदायत के बाद भी ......
पता नहीं क्यूँ हमें हमेशा सामान की तरह
ऊपर की बर्थ पर चढ़ा दिया जाता.
ऊपर की बर्थ पर बैठे हम भाई-बहन
लगभग आधे नीचे लटक कर झांकते,
तो खेत-खलिहान,पेड़-पौधे खिड़की से झांकते हुए
उलटी दिशा में भागने लगते,
हम तब इतने छोटे थे की
जिंदगी और विज्ञान के नियम
हमारे लिए तिलस्म रचने लगते ,
और इस तिलस्म में बार बार
हर बार जाने को जी चाहता ...........
चल तो सकते थे ,पर
चलने की समझ नहीं थी,
तब गर्मियों की छुट्टियों में
दिल्ली की दिवालिया दुपहरियों से निकालकर
माँ हमें नानी-घर ले जातीं....
बस,ऑटो,साइकिल,गाड़ियां
तो हम घर के आस-पास रोज़ ही देख लेते
पर रेलगाडियाँ और प्लेटफ़ार्म
बस इन्ही दिनों देखने मिलते.....
तब हम इतने छोटे थे की
देखते तो थे पर समझते नहीं थे ,
और देखने पर चीज़ें
अपने वास्तविक आकार से दस गुना बड़ी दीखतीं.....
रेल ''रेला'' बन जाती
सर पर मनों सामान लादे,भागते
मुसाफिरों का रेला !!!!
कुलियों के लाल लाल कपड़े
प्लेटफ़ार्म और भीड़ के चित्र में अलग ही दीखते,
छोटी-छोटी दुकानें खिड़कियों पर आ टिकतीं......
हम हैरत और डर से
रेल की पटरियों पर गश्त लगाते चूहों को देखते,
माँ के ना देखने की हिदायत के बाद भी ......
पता नहीं क्यूँ हमें हमेशा सामान की तरह
ऊपर की बर्थ पर चढ़ा दिया जाता.
ऊपर की बर्थ पर बैठे हम भाई-बहन
लगभग आधे नीचे लटक कर झांकते,
तो खेत-खलिहान,पेड़-पौधे खिड़की से झांकते हुए
उलटी दिशा में भागने लगते,
हम तब इतने छोटे थे की
जिंदगी और विज्ञान के नियम
हमारे लिए तिलस्म रचने लगते ,
और इस तिलस्म में बार बार
हर बार जाने को जी चाहता ...........
(शेष अगले चरण में )
6 comments:
सही कहा आपने, आपसे सहमत तब और अब में बहुत फर्क हैं बहुत अच्छी भावाव्यक्ति बधाई
bachpan mein ade hone ki lalak aur bade hote hi wapas bachha banne ki chah :-)
bahut badhiya dhang se prastut kiya hai pane.....vishayochit shabd....wah
Apraajita ji main samajh nahi pa rahi ke itna saadhaaran sa likhnewaalon ke blogs ki post per itne itne comments kaise hain, jabki aapki rachnaayein jo mujhe classical rachnaayein mahsoos huyin, vahaan itne kam comments!!! kya ho gaya hai logon ki pasand ko, aapki khoobi hai ke aap logon ki sanvednaaon ko juyun ka tuyun saamne lakar vahi peeda hamaare man mein bhi paida kar deti hain, machiyon ki peeda ka aapne bahut sundar chitran kiya, aur is kavita ko kripya poora kijiye iske agle charan ka mujhe besabri se intzaar hai
आपको यह बताते हुए हर्ष हो रहा है के आपकी यह विशेष रचना को आदर प्रदान करने हेतु हमने इसे आज के (२८ अप्रैल, २०१३) ब्लॉग बुलेटिन - इंडियन होम रूल मूवमेंट पर स्थान दिया है | हार्दिक बधाई |
लाजवाब - महाशिवरात्रि की हार्दिक बधाई और शुभकामनायें |
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