Friday, July 16, 2010

कुछ भी तो अमर नहीं












हरी घास के दरीचों पर
जहाँ मेरे तुम्हारे बीच
दुनिया का अस्तित्व नहीं होता था
तुम कितने प्रेम भरे अंदाज़ में कहते
करो जो करना चाहती हो
बस एक बार आवाज़ देना
मैं तुम्हारे साथ खड़ा रहूँगा
तब तो तुम प्रेमी थे, ना!
सफ़र बहुत लम्बा नहीं था
पर हमने दूरियाँ बहुत सी तय कर लीं
जब मैं परेशान होती थी
तुम पूछ कर ही दम लेते
मेरी परेशानी का सबब क्या है
आज तुम समझते हो
परेशान रहना मेरी आदत है
“हम” तब हम थे
आज तुम “तुम” में
और मैं “मैं” में
सिमटते जा रहे हैं
सच है इस नश्वर संसार में
कुछ भी तो अमर नहीं
न सूर्य, न धरती
न ही प्रेम ।।