Friday, August 22, 2008

जिस रात की सुबह नहीं


राहुल के पिता शर्मा जी पर तमतमा रहे थे:
“ऐसी धोखाधड़ी, शर्मा जी मैं आपको सज्जन व्यक्ति समझ रहा था और आप..”

“जी, आप क्या कह..... मैं कुछ समझा नहीं..”

घबराहट और बौखलाहट में शर्मा जी के वाक्य अधूरे रह गए. राहुल के पिता फिर भड़के:
“ऐसी कुल्टा लड़की! हमारे ही पल्ले बाँधनी थी. वो तो वक्त रहते बात सामने आ गई. हम खानदानी लोग हैं, ऐसी लड़की हमारे घर की बहु....आपको शर्म आनी चाहिए. आपने सोचा भी कैसे? छोटा-मोटा मीन-मेख तो चल जाता, पर बलात्कार..!”

शर्मा जी शिथिल पड़ गए. जिस बात को छिपाने के लिए उन्होंने अपाहिज लड़के को भी अपना लिया था. वो बात इस तरह...इस वक्त...हे भगवान!

राहुल के पिता के अंगारे फिर दहके:
“इतना बड़ा धोखा! ये संबंध यहीं ख़त्म!”

शर्मा जी ने खुद को बटोरकर रूंधे हुए गले से कहा:
“आपका उत्तेजित होना लाज़िमी है, लेकिन इसमें बच्ची का क्या दोष! मेरी बेटी गुणी है, सुशील है, पढ़ी-लिखी है, आत्मनिर्भर है और सबसे बढ़कर उसकी खुशी अपने परिवार की खुशी में ही है. यह तो दुर्घटना थी, क्या इससे उसके गुण गुण नहीं रह जाते. इसका दंश उससे तो झेला भी न जाता था. फाँसी लगा रही थी. वो तो इसके भाई ने देख लिया..”

“आपकी कोई दलील इस कलंक को नहीं धो सकती. बलात्कार भी उन्हीं लड़कियों के साथ होता है जो चरित्रहीन होती है. सड़क चलती हर लड़की के साथ तो नहीं होता, और क्या यही लड़की बची है हमारे लिए, हमारा बेटा अपाहिज है, उस पर कोई कलंक नहीं लगा, फिर हम कोई समझौता क्यों करें? “

उस अभिशप्त तिथि ने निशा का क्या कुछ नहीं छीना था और आज ..... वह अचेत हो गिर पड़ी. माँ ने उसे संभाला और रोने लगी. उधर दुखी-अपमानित-लज्जित शर्मा जी अपनी विवशता पर चींखे:
“क्यों रो रही है इस कलंकिनी के लिए, मरती भी तो नहीं है, मर जाए तो पाप धुले. मर कर ही इसका और हमारा उद्धार होगा.”

कैसा नंगा और वीभत्स सत्य था जो एक नहीं पूरे परिवार को अपने स्याह रंग में लील गया. और न जाने कब तक लीलता रहेगा..............!

बहुत जी है


आज तुमसे बातें करने का
बहुत जी है
आज तुम्हारे साथ होने का
बहुत जी है
तुमने उस दिन माँगा था हाथ
चाहा था साथ
चलने को उस राह पर.
जब रोशनाइयों में सिमट रहे थे
घुल रहे थे ख्वाब
जला दूँ दिया चाहा था तुमने
मगर मैं अपने ‘मैं’ से
‘तुम’ तक नहीं पहुँच पाई
आज जब देखा कि अब भी
तुम ‘तुम’ हो उसी तरह से
जैसे थे साथ की चाह में
तो उतर आई हूँ
‘मैं’ और ‘तुम’ से
हम हो जाने के लिए
तुम से वह प्रेम पाने के लिए
जिसे तुमने मेरा अधिकार
सम्मान बनाए रखा
तब भी जब मैं नहीं थी
उसी तरह जब मैं थी
आज तुम्हारे साथ ज़िन्दगी जी लेने का
बहुत जी है!
बहुत जी है!!

अब ख़त नहीं आता


बचपन में मैं डाक टिकट जमा करती
कभी सबकी चिट्ठियों से उतार कर
कभी पिताजी के लाये हुए टिकटों में से
एक आध छिपा कर
तब लैटर बॉक्स मुझे बड़ा प्रिय था
हर दिन कोई न कोई ख़त ज़रूर आता
मामा जी तो हमेशा लिखते
वो बम्बई वाली सहेली भी
और पिता जी के ख़तों का तो हिसाब ही नहीं
घर के हर सदस्य के नाम ख़त आते
हम तो डाकिया चाचा से भी ख़ूब घुल-मिल गए थे
त्यौहारों पर माँ उनको मिठाई देती
उनकी मेहरारू और बच्चों के कपड़े भी
उस समय ग्रीटिंग भेजने का भी चलन था
पैसे खर्च करने को मिलते कहाँ थे
सो ख़ुद ही बनाकर सबको भेजते
सारी दुपहरी, यही तो काम करते
हम नहीं जानते थे कि बहुत जल्द
यह सिलसिला इतिहास बनने वाला है
अब तो हर कोई मोबाइल वाला है
कागज़ और क़लम कहीं कोने में पड़े हैं
घर के बाहर लटके लैटर बॉक्स
बैंकों के चिट्ठियों और कम्पीटिशन्स के रोलनम्बरों से अटे पड़े हैं
उनमें ऐसा कोई ख़त नहीं आता
जो मुझसे मेरा हाल पूछता हो
और अपनी ख़ैर ख़बर सुनाता हो.

Friday, August 8, 2008

कितना प्रेम है....


कितना प्रेम है....
क्या तभी जान पाओगे
जब मैं तुम्हें दूँ
गुलाब का लाल फूल.
अगर मैं गेंदे का फूल दूँ
या कोई फूल न भी दूँ
तो क्या जानना मुश्किल होगा
कितना प्रेम है..

मैं चाहती हूँ हमारे प्रेम को
इन छोटे-छोटे उपमानों की
या अन्य किसी सामानों की
कोई ज़रूरत न रह जाए.
हमें न हो इंतज़ार
किसी दिन विशेष का
किसी तोहफे का
कि हमें जताना पड़े
कितना प्रेम है.